यदि भारतीयों के दिल में जगह बनानी है तो उसका सबसे सरल माध्यम है हिंदी भाषा का ज्ञान क्योंकि हिंदी सीखे बिना भारतीयों के दिलो तक पहुँचना मुश्किल है। आज के आधुनिक युग के पढ़ें लिखें कुछ लोग जो बड़ी–बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों में नौकरी कर रहे हैं उन्हें आज के समय में हिंदी का कोई भविष्य दिखाई नहीं देता। एक बार को मान लेते है कि उनका मानना भी सही हैं क्योंकि वो जिस दौड़ में शामिल हैं उसके लिए हिंदी का होना उन्हें जरूरी नहीं लगता। माना कि हिन्दी भाषी तकनीकी ज्ञान से दूर हैं पर आज भी तकनीकी एकता से ज्यादा मानवीय एकता महत्व रखती है और भाषा के इसी संयोगात्मक गुण को पहचाना है पल्लवी सिंह ने। पल्लवी मानती है अंग्रेजी का ज्ञान होना आज की आवश्यकता है लेकिन साथ ही वे इस बात से भी परिचित है की हिंदी हमारी नींव है जिसे कभी छोड़ा नहीं जा सकता है। इसलिए तो भारत में आज एक ओर इंग्लिश स्पीकिंग के लिए कोचिंग सेंटरों की भरमार है। वही पल्लवी ने हिंदी भाषा की कोचिंग देना शुरू कर वाकई काबिले तारीफ़ काम किया है।
शायद पल्लवी इस बात से अच्छे से वाकिफ़ है कि “भीड़ हमेशा उस रास्ते पर चलती है जो रास्ता आसान लगता है पर इसका मतलब यह नहीं कि वही एकमात्र रास्ता है। भीड़ से अलग चलने का साहस दिखाइये और अपने रास्ते खुद चुनिए क्योंकि आपको आपसे बेहतर कोई और नहीं समझ सकता है।”
केनफ़ोलिओज़ को दिए एक साक्षात्कार में पल्लवी सिंह ने अपनी कहानी को बेबाकी से साझा किया।

पल्लवी का जन्म दिल्ली में हुआ और बचपन चंपक, बालहंस आदि हिंदी की किस्से कहानियां पढ़ने में व्यतीत हुआ। जैसा की हम सभी के साथ हुआ है। समय बीतने लगा पल्लवी ने जब कक्षा 12 की पढ़ाई पूरी की तो प्रश्न उठने लगे की वो आगे क्या करेगी भविष्य की रूपरेखा तय की जाने लगी और निष्कर्ष निकला की पल्लवी इंजीनियरिंग करेगी जिससे कि अच्छी नौकरी पाकर वो अपना भविष्य सुरक्षित कर सके। सबकी बात मानकर पल्लवी ने इलेक्ट्रॉनिक और कम्युनिकेशन से बी.टेक की पढ़ाई की। लेकिन बचपन की वो हिंदी की कहानियां रह रहकर पल्लवी को याद आने लगती और तभी उन्होंने अनुभव किया कि इंजीनियरिंग वो क्षेत्र नहीं है जिसमें वो अपना करियर बनाना चाहती है। लेकिन उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि यदि इंजीनियरिंग उसकी पसंद नहीं है तो ऐसा क्या है जो वो करना चाहती है।
उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई को जारी रखा और साथ ही भाषा सीखने में रूचि होने के कारण खाली समय में फ्रेंच भाषा सीखने के लिए डिप्लोम कोर्स करने लगी। लेकिन फ्रेंच भाषा सीखते हुए पल्लवी ने अनुभव किया कि उन्हें जिस तरह से भाषा सिखाई जा रही थी उसका कोई नियत मोड्यूल नहीं था जिससे की उसे सरल विधि और प्रभावी तरीके से सीखा जा सके। पल्लवी फ्रेंच भाषा सिखने के अनुभव को याद करते हुए बताती हैं कि “जिस तरह से हमें फ्रेंच सिखायी जा रही थी उससे हम फ्रेंच को उस तरह से नहीं बोल सकते थे जैसे कोई फ़्रांस में रहने वाला व्यक्ति बोलता है और मैं चाहती थी कि मुझे यदि कोई फ्रेंच व्यक्ति मिले जिससे मैं हर दिन बातचीत करके फ्रेंच को इससे बेहतर तरीक़े से सिख सकूँ।“
जब पल्लवी के दिमाग में फ्रेंच भाषा के लिए ये विचार आया तो उसी समय एक और विचार ने उनके दिमाग में दस्तक दी जिसने पल्लवी के लिए एक सुनहरे भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया। उस विचार के बारे में केनफ़ोलिओज़ से खास बातचीत में पल्लवी बताती हैं कि “जब मैं फ्रेंच भाषा की कठिनाइयों से रूबरू हो रही थी तब मैने सोचा की भारत में रहने वाले जो दूसरे देशों के लोग है वे भी हिंदी भाषा सीखते वक्त यही कठिनाई अनुभव करते होंगे। बस तभी मैंने सोच लिया कि मैं भारत आने वाले अन्य देशों के नागरिकों को हिंदी सिखाने का काम करूंगी। इसके लिए पल्लवी ने अपना एक सरल और प्रभावी हिंदी भाषा का मोड्यूल बनाया, एक पाठ्यक्रम निर्धारित किया और हिंदी सिखाने का श्रीगणेश किया।
“जब मैने हिंदी सिखाने का निश्चय किया तो बहुत आलोचना भी हुई। मुझे बोला गया की इसमे कोई भविष्य नहीं है। आजकल हिंदी के क्षेत्र में कौन जाता है। पर तब तक मैं हिंदी के क्षेत्र में भविष्य बनाने का निश्चय कर चुकी थी।“
कुछ ही समय में पल्लवी को दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले अन्य विदेशी छात्रों ने जाना और हिंदी सिखाने का एक सिलसिला चल पड़ा और पल्लवी ने अगस्त 2011 में अपनी पहली औपचारिक कक्षाओं की शुरुआत की जिसका नाम रखा ‘हिंदी लेसन्स’। उसी के साथ अपनी बी.टेक की पढ़ाई पूरी करने के बाद पल्लवी ने मुंबई आकर सोफ़िया कॉलेज में अपने पसंदीदा विषय मनोविज्ञान में दाखिला लिया और मुम्बई को अपनी कार्यस्थली बनाया। शुरुआत में मुंबई में पल्लवी को अपने स्टूडेंट्स की तलाश करने में कुछ समस्या आई क्योंकि मुंबई उनके लिए नया शहर था। लेकिन तबतक पल्लवी का हिंदी सिखाने का सिलसिला जुनून में बदलने लगा था।

पल्लवी एक किस्से का ज़िक्र करते हुए सिद्ध करती हैं कि हिंदी जानना विदेशियों के लिए क्यों आवश्यक है — “एक बार जब मैं अपने अफ़्रीकन स्टूडेंट्स को रंगों के नाम हिंदी में बता रही थी तभी एक छात्र ने बताया कि अब उसे समझ आया की लोग उसे ‘कालू’ क्यों कहते हैं। उसने सीख लिया था कि अंग्रेजी के ब्लैक को हिंदी में काला कहा जाता है। तब मुझे बहुत दुःख हुआ और शर्मिंदगी महसूस हुई लेकिन साथ ही तब मुझे समझ आया कि जो मैं कर रही हूँ वो इन स्टूडेंट्स के लिए कितना जरूरी है।“
पल्लवी ने अपना फ़ेसबुक पेज बनाया और अपने स्टूडेंट्स की तलाश करने लगी। तभी एक दिन अमेरिकी वाणिज्य दूतावास ने कुछ अप्रवासियों को हिंदी सिखाने के लिए पल्लवी से संपर्क किया और उस दिन से लेकर आज तक पल्लवी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। पल्लवी अभी तक कई राजनयिक अभियानों का अंग रह चुकी हैं, जहां उन्हें मल्टीनेशनल कंपनियों से भारत में आए कर्मचारियों और उनके परिवार के सदस्यों को हिंदी सिखाने के लिए नियुक्त किया है।
पल्लवी TED के मंच पर भी अपनी प्रभावी उपस्थित दर्ज करा चुकी हैं और राज्यसभा टेलीविजन की सबसे युवा मेहमान भी रही जिन्हें गुफ़्तगू कार्यक्रम में मेहमान आमंत्रित किया गया।
अब तक पल्लवी सैकड़ों विदेशियों को हिंदी सिखा चुकी हैं और ये सिलसिला अभी भी जारी है। उनके स्टूडेंट्स में सिर्फ फॉरेनर्स ही नहीं, बल्कि जैकलीन फर्नांडिस, लुसिंडा निक्लस जैसी कई सेलेब्रिटीज भी शामिल हैं। आज पल्लवी हिंदी सिखाने में एक प्रतिष्ठित नाम बन चुकी है जो किसी परिचय की मोहताज नहीं है। फेमस स्कॉटिश इतिहासकार विलियम डॅलरिंपल को भी पल्लवी ने ही हिंदी सिखाई है। डॅलरिंपल एक बड़े इतिहासकार हैं जो भारत, अफगानिस्तान और अन्य देशों में इतिहास से जुड़ी घटनाओं और आर्ट का अध्ययन करने के लिए जाने जाते हैं।
हिंदी टीचर पल्लवी की ख़ास बात यह है कि उन्हें अपनी क्लास चलाने के लिए किसी इंस्टीट्यूट के रूम की जरूरत नहीं है और ना ही किसी ऑफिस की। उनका अपना अलग अंदाज है उनका एक फेसबुक पेज है, जहां वह अपने स्टूडेंट्स से रूबरू होती हैं। उनकी हर हिंदी क्लास एक शो जैसी होती है जिसमें बातचीत को मजेदार बनाकर खुशनुमा माहौल बनाया जाता है। जहां तमाम गतिविधियों के माध्यम से कार्ड-बोर्ड और टीचिंग टूल की सहायता से पढ़ाई को फन बनाते हुए क्लास को सजीव बनाया जाता है। पल्लवी ने हिंदी सिखाने का अपना मॉडल बनाया है जो उनके स्टूडेंट्स के फीडबैक पर आधारित है, इसकी सहायता से वे यह दावा करती हैं कि कोई भी घंटे भर की 25 क्लासों में हिंदी बोलना सीख सकता है। हालाँकि वो ये मानती हैं कि युवाओं को सिखाना एक चुनौती का काम है क्योंकि वे अपनी ज़िंदगी की तमाम समस्याओं में उलझे रहते हैं, ज़िंदगी के रास्ते तय करने के लिए खुद ही संघर्ष कर रहे इन युवाओं का पूरा ध्यान सीखने पर लगाना मुश्किल होता है।
और तो और उनकी क्लास में भारी भीड़ नहीं होती। सभी को उनके समय के अनुसार एक एक कर पढ़ाया जाता है क्योंकि पल्लवी जानती है कि हर व्यक्ति की अपनी अलग आवश्यकता है।
पल्लवी अपने पाठ्यक्रम और सिखाने के तरीके के बारे में बताती हैं कि “मैंने हिन्दी पढ़ाने के लिये खुद के मॉड्यूल तैयार किये हैं। मैं अपने स्टूडेंट्स को हिन्दी की सामान्य किताबों से नहीं बल्कि उसी कोर्स के अंतर्गत पढ़ाती हूँ जो मैंने तैयार किया है। ये कोर्स करीब तीन से चार महीने का होता है। और कभी–कभी छह महीने का भी जो सिखने वाले की स्पीड पर निर्भर करता है। अगर छात्र के घर जाकर पढ़ाना है तो मैं 15 से 20 मॉड्यूल की कॉपी छात्र को देती हूँ और उसी के अंतर्गत पढ़ाती।”
पल्लवी के मॉड्यूल के अंतर्गत सी.डी पर हिन्दी फिल्में दिखाना और हिन्दी में वाद–विवाद आदि भी शामिल है। अगर छात्र अन्य देश अथवा किसी दूसरे शहर में है तो पल्लवी स्काइप के माध्यम से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग करके भी हिन्दी सिखाने का कार्य करती है। पल्लवी अपने विदेशी स्टूडेंट्स को ऐसी हिंदी सिखाती हैं कि उन्हें भारत में रहने के दौरान रोजमर्रा के जीवन में काम आ सके। साथ ही वे बात–चीत में आने वाली दिक्कतों से मुक्त हो सके। इसके बाद वो इतना तो सीख ही जाते हैं कि हिंदी में रास्ता पूछ सकें, ख़रीददारी कर सकें और मोल–भाव कर सकें या खाना ऑर्डर कर पाएं।

आज कई टूरिस्ट भी पल्लवी से हिंदी सीखने आते हैं। पल्लवी ने अपने छात्रों में भारत और हिंदी के लिए एक अजब सा प्रेम और सम्मान देखा है जो निरंतर उन्हें प्रेरित करता है कि वे ज्यादा से ज्यादा हिंदी का ज्ञान दे। भले ही पल्लवी के पास अभी कोई इंस्टीट्यूट नहीं है, लेकिन वह एक बड़ा हिंदी इंस्टीट्यूट खोलना चाहती हैं, जहां इस भाषा को सीखने वालों के लिए सारे अवसर एक ही जगह पर मिल सके। पल्लवी का अगला लक्ष्य दिल्ली में स्थित अलग–अलग देशों के दूतावासों से संपर्क कर अपने मॉड्यूल के बारे में बताना है, ताकि वहां काम करने वाले विदेशी भी हिन्दी से रूबरू हो सके। हिंदी सिखाने के परंपरागत तरीकों से अलग हटकर पल्लवी ने जो रास्ता बनाया है वो वाकई भारत की राष्ट्र भाषा हिंदी को एक नया जीवन देगा और साथ ही उन लोगो के लिए करारा जवाब भी है जो मानते है की हिंदी का अस्तित्व खत्म हो गया है।
पल्लवी ने साबित कर दिया कि टेक्नोलॉजी के ज़माने में भी कोई टेक्नोलॉजी मानवीय संवादों का स्थान नहीं ले सकती।
26 वर्षीय इंजीनियर से हिंदी शिक्षक बनी पल्लवी आज के युवाओं को सन्देश देते हुए कहती हैं कि “मेरे पास खोने के लिए बहुत कुछ था, मैं वो कोई भी दूसरा इंसान हो सकती थी जो कुछ नहीं करता पर मैंने जोखिम उठाया, मुझे लगता है आप जिस काम को प्यार करते हैं उसके लिए आपको भी जोखिम उठाने चाहिए।”
पल्लवी की तरह यदि हर युवा इसी तरह हिंदी के महत्व को जान ले तो वो दिन फिर से आएगा जब भारत विश्वगुरु फिर से कहलायेगा।
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