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अवश्य पढ़ें: एक रिक्शाचालक द्वारा 100 करोड़ की कंपनी बनाने की अनूठी कहानी

आए दिन हमें शून्य से शिखर का सफर तय करने वाले लोगों की कहानियां पढ़ने को मिलती ही रहती है। लेकिन कुछ कहानियां ऐसी होती जिसकी जगह कोई नहीं ले सकता। गरीबी और संघर्ष को ही अपनी ताकत बनाते हुए कुछ लोग जीवन की राह में इतनी मजबूती से खड़े रहते कि बाधाएं खुद-बखुद अपना रास्ता मोड़ लेती है। दृढ़ संकल्प होकर लक्ष्य प्राप्ति के लिए डटे रहना ही इनकी सबसे बड़ी ख़ासियत होती है जो इन्हें भीड़ से अलग खड़ा करती है। आज की हमारी कहानी एक ऐसे ही शख़्सियत की है जिन्होंने कठिन मेहनत और दूरदर्शिता से वो मुक़ाम हासिल किया जो सपने में भी कोई नहीं सोच सकता। रंक से राजा बनने की यह कहानी बेहद प्रेरणादायक है।

रिक्शाचालक से एक कामयाब उद्यमी बनने तक का सफर तय करने वाले हरिकिशन पिप्पल की कहानी सच में कामयाबी की अनूठी मिसाल है। बचपन से ही छुआछूत, जातिवादी भेदभाव और शोषण का शिकार रहे हरिकिशन ने कभी खुद को चुनौतियों के सामने झुकने नहीं दिया। उत्तर प्रदेश के आगरा में एक बेहद ही गरीब दलित परिवार में पैदा लिए हरिकिशन के पिता एक छोटी सी जूता मरम्मत की दुकान चलाते थे। किसी तरह परिवार को दो वक़्त का खाना नसीब हो पाता था। घर की दयनीय आर्थिक हालातों को देखते हुए हरिकिशन ने बचपन से ही मेहनत-मजदूरी करना शुरू कर दिया। उन्हें बचपन में ही इस बात का अहसास हो चुका था कि आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए शिक्षा बेहद महत्वपूर्ण है और इसी वजह से उन्होंने खुद की पढ़ाई का खर्चा उठाने के लिए मजदूरी का रास्ता चुना। दिनभर काम करते और रात में मन लगाकर पढ़ाई।

उस दौर के संघर्ष को याद करते हुए हरिकिशन बताते हैं कि गर्मी के दिनों में मैं आगरा एयरपोर्ट पर खस की चादरों पर पानी डालने का काम किया करता था और इस काम के लिए मुझे हर महीने 60 रुपये मिलते थे।

तमाम चुनौतियों के बीच हरिकिशन ने अपनी पढ़ाई को जारी रखा। लेकिन उन्हें इस बात का बिलकुल भी अहसास नहीं था कि आने वाला वक़्त उनके लिए और भी मुश्किल होने वाला है। खैर मुसीबतों का सामना तो अब उनकी जिंदगी का हिस्सा बन चुका था। जब वे दसवीं कक्षा में पहुँचे तभी उनके पिता अचानक बीमार पड़ गए। उनकी तबियत इस कदर बिगड़ गई कि वे काम करने की स्थिति में नहीं रहे। ऐसे में आय का एकमात्र स्रोत दुकान भी बंद हो गया और परिवार चलाने की जिम्मेदारी हरिकिशन के कंधों पर आ गयी। इस करो या मरो की स्थिति में उन्होंने रोजगार की तलाश शुरू कर दी। काफी मशक्कत के बाद भी जब उन्हें कोई काम नहीं मिला तो बिना परिवार वाले को बताए उन्होंने अपने एक रिश्तेदार से साइकिल-रिक्शा माँग चलाने शुरू कर दिए। लोगों से अपनी पहचान छुपाने के लिए वे शाम के वक़्त रिक्शा चलाते और अपने चेहरे पर कपड़ा बाँध लेते।

यह सिलसिला कुछ महीनों तक चला। इसी दौरान लम्बी बीमारी से ग्रस्त पिता ने दम तोड़ दिया। पिता की मृत्यु के बाद माँ ने उनकी शादी करा दी। हरिकिशन के ऊपर परिवार की जिम्मेदारी और भी बढ़ गयी। फिर उन्होंने 80 रूपये की तनख्वाह पर आगरा की एक फैक्टरी में मजदूरी करने शुरू कर दिए। आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक हर दबावों का सामना करते हुए हरिकिशन ने कभी अपने सपने को नहीं मरने दिया और उनके इस हौसले को उनकी पत्नी का भी भरपूर साथ मिला। साल 1975 में उन्होंने अपनी पत्नी की सलाह पर पंजाब नेशनल बैंक में लोन का आवेदन दिया और अपने पुश्तैनी दुकान को फिर से शुरू करने का फैसला किया। सौभाग्य से उन्हें बैंक द्वारा 15 हज़ार रूपये लोन में मिले लेकिन तभी कुछ पारिवारिक विवादों के चलते उन्हें घर छोड़ने को मजबूर होना पड़ा। उन्होंने एक छोटा सा कमरा किराये पर लिया और अपने सपने की नींव रखी। शुरुआत ,में उन्होंने छोटे स्केल पर जूता बनाना शुरू किया। उनकी जिंदगी में उस समय टर्निंग पॉइंट आया जब उन्हें स्टेट ट्रेडिंग कार्पोरेशन से 10 हज़ार जोड़ी जूते बनाने का ऑर्डर मिला। हरिकिशन की जिंदगी में यह बेहद महत्वपूर्ण साबित हुआ और फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। इस करार से हुए मुनाफे का सही इस्तेमाल करते हुए उन्होंने हेरिक्सन नाम से अपना खुद का जूता ब्रांड लांच किया।

कम दाम में गुणवत्ता पूर्ण सामान मुहैया करा उन्होंने कम समय में ही अपनी पहचान बना ली। और फिर उन्हें बाटा समेत कई नामचीन कंपनियों से आर्डर मिलने शुरू हो गए। उन्होंने पीपल्स एक्स्पोर्ट्स प्राइवेट लिमिटेड नाम से कंपनी की आधारशिला रखते हुए कई अन्तराष्ट्रीय ब्रांडों के लिए भारत में जूते का निर्माण किया। अस्सी के दशक में जूतों के कारोबार में मंदी को भाँपते हुए हरिकिशन अन्य क्षेत्रों में भी किस्मत आज़माने की कोशिश की। इसी कड़ी में उन्होंने अग्रवाल रेस्टोरेंट नाम से एक रेस्तराँ खोला। एक दलित द्वारा अग्रवाल नाम से रेस्टोरेंट खोलने पर कई लोगों ने सवाल उठाये लेकिन हरिकिशन कामयाबी की सीढ़ियों पर चढ़ते चले गए। रेस्टोरेंट की शुरूआती सफलता के बाद उन्होंने इसका विस्तार करते हुए एक शानदार शादीखाना भी बनाया। हेल्थकेयर सेक्टर में एक बड़ी कमी को महसूस करते हुए उन्होंने साल 2001 में हैरिटेज पीपुल्स हॉस्पिटल की स्थापना की। इसके अलावा उन्होंने वाहन डीलरशिप और पब्लिकेशन फर्म में भी अपनी पैठ जमाई।

67 वर्ष के हरिकिशन ने अपनी काबिलियत और दूरदर्शिता से कई क्षेत्रों में कामयाबी के झंडे गाड़े। आज वह एक सफल व्यवसायी हैं, जिनकी कंपनी का सालाना टर्नओवर 100 करोड़ के पार है। हरिकिशन की सफलता पर गौर करें तो हमें काफी कुछ सीखने को मिलता है। सबसे बड़ी बात यह है कि यदि हमारे भीतर लक्ष्य प्राप्त करने को लेकर ललक है तो चुनौतियों के बावजूद भी सफलता एक न एक दिन अवश्य हासिल होगी।

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