शून्य से 50 करोड़ की कंपनी बना कर उन्होंने साबित कर दिखाया सफलता अभावों की मोहताज़ नहीं होती

हर कामयाब शख़्स ने कभी न कभी बुरा वक़्त तो देखा ही होता है। पर अगर हमारे भीतर वो ज़ज़्बा और दृढ़ निश्चय हो तो कितना भी बुरा वक़्त हो दूर हो ही जाता है। कोई भी सफलता प्राप्त करने के लिए कठिन मेहनत तो करनी ही पड़ती है। आपकी स्थिति चाहे जैसी भी हो पर कहते हैं अगर आपके पास कोई कला है तो वो आपको भूखे नहीं रहने देगी। आज हम एक ऐसे ही शख़्स की बात करने जा रहे हैं जिसने अपनी कला के दम पर एक अलग पहचान बनाई है।

इनका नाम है बीरेन कुमार बसाक। बीरेन पश्चिम बंगाल के नदिया जिला के कृष्णानगर के रहने वाले हैं। उनका जन्म 16 मई, 1961 को हुआ था। वे एक साधारण बुनकर परिवार से आते हैं। बीरेन का बचपन बेहद गरीबी में बीता। उनके पिता गाँव के एक साधारण बुनकर थे, वे रोज़ इतना भी नहीं काम पाते थे कि घर का खर्च निकल सकते। गाँव में उनका छोटा सा खेत भी था, जिसमें खाने लायक कुछ अनाज उपज जाते थे। गरीबी का आलम यह था कि बीरेन कभी ठीक से पढ़ भी नहीं पाये। पैसों की किल्लत के कारण कम उम्र में ही उन्होंने नौकरी ढूंढना शुरू कर दिया।

बचपन से ही बीरेन ने सिर्फ बुनने का काम ही देखा था और सीखा था। उसके अलावा उन्हें कुछ आता भी नहीं था। जल्द ही उन्हें पास के एक गाँव फुलिया के साड़ी बुनने वाले कारखाने में नौकरी मिल गई। वहां उन्होंने करीब 8 साल तक काम किया और साड़ी बुनने के हर छोटी-बड़ी तकनीक को सीखा। वहां लंबे वक़्त तक काम करने की वजह से उन्हें साड़ी के बिज़नेस के बारे में बहुत कुछ पता चल गया था। 1987 में उन्होंने अपना खुद का साड़ी का बिज़नेस शुरू करने की सोची। लेकिन कारोबार शुरू करने के लिए पूंजी की आवश्यकता थी और इसके लिए उन्हें अपना घर तक गिरवी रखना पड़ा। उन्होंने अपने बड़े भाई के साथ मिलकर बिज़नेस करना शुरू किया। वे बुनकरों के यहाँ से साड़ी खरीदते थे और उसे कोलकाता में जा कर घर-घर बेचते थे।

धीरे-धीरे ये सिलसिला आगे बढ़ता गया और बीरेन को अच्छा खासा मुनाफ़ा मिलना शुरू हो गया। करीब एक साल साड़ी बेचने का काम करने के बाद बीरेन ने कोलकाता में खुद की ही एक दुकान खोल ली। एक साल में ही उनके दुकान का टर्न ओवर 1 करोड़ के पार हो गया। लेकिन कुछ आपसी अन बन होने के कारण वे भाई को छोड़ कर गाँव आ गए। गाँव आकर 1989 में उन्होंने बीरेन बसाक एंड कंपनी की नींव रखी। यहाँ वे हथकरघा साड़ियों को बुनबाते थे। वे होलसेलर को सीधे माल सप्लाई करने लगे। वे खुद साड़ियों पर डिज़ाइन भी बनाते थे और आज भी उनकी जमदानी हथकरघा स्टाइल की साड़ियां बहुत प्रसिद्ध हैं।

केनफ़ोलिओज़ से खास बातचीत में उन्होंने बताया कि उनकी कंपनी करीब 5 हज़ार बुनकरों के साथ काम कर रही है और अभी टर्नओवर करीब 50 करोड़ का है।

बसाक ने 20 वर्ष पहले 6.5 गज की एक साड़ी बुनी थी। इस पर उन्होंने रामायण के सात खंड उकेरे थे। उनके ऐसे कारनामे को सिर्फ देश ने ही दुनिया भी सहारा। उसी का परिणाम है कि बीरेन कुमार बसाक को हाल ही में इस अद्भुत कला के लिए ब्रिटेन की एक यूनिवर्सिटी ने उन्हें डाॅक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित भी किया। बीरेन कुमार बसाक ने सन 1996 में रामायण को साड़ी पर उकेरना शुरू किया था। जिसे पूरा होने में कम से कम ढाई साल लगे।

बीरेन कुमार बसाक के कहा कि “इस अद्भुत साड़ी को बुनने के लिए लगने वाली तैयारी में ही करीब एक साल का वक्त लग गया था। कोई कथा कहने वाली यह अपनी तरह की पहली साड़ी थी जो मैंने बुनी है।

बीरेन के इस जादुई कलाकृति के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार, नेशनल मेरिट सर्टिफिकेट अवाॅर्ड, संत कबीर अवाॅर्ड आदि मिल चुका है। इसके अलावा लिम्का बुक ऑफ रिकाॅर्ड, इंडियन बुक ऑफ रिकाॅर्ड्स और वर्ल्ड यूनिक रिकाॅर्ड्स में भी उनका नाम दर्ज है। वर्ष 2004 में मुम्बई की एक कंपनी नें बसाक को रामायण वाली इस साड़ी के बदले में आठ लाख रुपये देने की पेशकश की थी पर बसाक ने उसे ठुकरा दिया था।

अब बसाक की योजना गुरु रवींद्रनाथ ठाकुर के जीवन को भी साड़ी पर उकेरने की है और वे इसकी तैयारियों में भी जुट गये हैं।


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