भारतीय अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता के लिए पैक की गई वस्तुओं का कारोबार एक अहम् भूमिका रखता है। यदि कायदे से देखें तो इस सेक्टर में ज्तादातर मल्टीनेशनल कंपनियों का बोलबाला रहा है। लेकिन कुछेक भारतीय उद्यमियों ने भी इस सेक्टर में शून्य से शुरुआत कर शिखर तक का सफ़र तय किया है। और इन्हीं लोगों की बदौलत पिछले कुछ वर्षों में घरेलु ब्रांडों की भी मांग तेजी से बढ़ी है। आज हम एक ऐसे ही सफल उद्यमी की कहानी लेकर आये हैं, जिन्होंने एफएमसीजी सेक्टर में कदम रखते ही तहलका मचा दिया। गुजरात के सिनेमाघरों में चिप्स बेचने से शुरुआत करते हुए देश की एक नामचीन ब्रांड बनाने वाले इस शख़्स की कहानी अपने-आप में अनूठी है।
कोई नहीं जानता था कि गुजरात के जामनगर के एक छोटे से गाँव में जन्मे तीन भाई चंदुभाई, भीखुभाई और मेघजीभाई वीरानी आने वाले वक़्त में भारतीय उद्योग का जाना-माना चेहरा बनेंगे। एक गरीब किसान परिवार में पैदा लिए इनके परिवार का मुख्य पेशा खेती ही हुआ करता था। साल 1972 में वीरानी भाइयों ने गांव से शहर जाने का फैसला किया। इन लोगों ने योजना बनाई कि शहर में अपना कुछ कारोबार खड़ा करेंगे। कारोबार को खड़ा करने के लिए शुरूआती पूंजी की आवश्यकता को देखते हुए इन भाइयों ने पिता पर जमीन बेचने का दबाव भी बनाया।
पिता के लिए तो पुत्र की सबकुछ था। अपनी पुश्तैनी कृषि भूमि बेचकर उन्होंने अपने पुत्रों को कारोबार करने के लिए 20 हजार रुपए दिए। चंदुभाई ने भाइयों के साथ कृषि उपकरणों की ट्रेडिंग की और सारी पूंजी डुबो दिया। पहले तो किसी तरह खेती-बारी से घर का चूल्हा जलता था, किन्तु अब तो वो भी ख़त्म हो चुका था। अंत में दो जून की रोटी के लिए इन्होंने साल 1974 में राजकोट के एक सिनेमा घर में छोटी केंटिन खोली और अपनी पत्नियों के द्वारा बनाए वेफर्स और सेंडविच बेचने शुरू कर दिए।

यह सिलसिला 15 सालों तक चला और इस दौरान इन्होंने गौर किया कि घर के बनाये वेफर्स ग्राहकों को ज्यादा पसंद आ रहे थे। इन्होंने इस सेक्टर में एक बड़ी बिज़नेस संभावनाओं को देखा और फिर अपने उत्पादों को ज्यादा लोगों तक पहुँचाने के उद्येश्य से इन्होंने साल 1989 में वेफर्स फ्राइंग के लिए एक सेमी-आटोमेटिक प्लांट लगाया। इन्होंने बालाजी वेफर्स के बैनर तले किफायती दामों में अच्छे माल उपलब्ध करा लोकल मार्केट में अपनी पैठ ज़माने शुरू कर दिए।
हालांकि शुरुआत में इन भाइयों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। अपने माल को लेकर इन्हें खुद दुकान-दर-दुकान बेचने जाना होता था। कई दुकानदार बल्क में पैकेट लेना पसंद नहीं करते थे और कुछ दुकानदार जो लेते थे, वे समय पर पैसे भी नहीं देते थे। कई बार उन्हें ये कहकर भी पैकेट लौटा दिए जाते थे कि ये खुले हैं और खराब हो गए हैं। इतनी मेहनत के बाद भी उन्हें ज्यादा फायदा नहीं हो रहा था। लेकिन इन्होंने हार नहीं मानी और आज बाज़ार में इनका राज है।
गौरतलब है कि 50 हजार करोड़ रुपए के इंडियन स्नेक्स मार्केट में साल्टी स्नेक्स (नमकीन) की हिस्सेदारी 60 फीसदी है तो पोटाटो चिप्स की 40 फीसदी। आज गुजरात के साल्टी स्नेक्स मार्केट में बालाजी वेफर्स की 65, महाराष्ट्र में 50, राजस्थान में 35 और मध्यप्रदेश में 25 फीसदी हिस्सेदारी है। यहाँ लेज, कुरकुरे, पार्ले और बेंगो जैसे ग्लोबल और नेशनल ब्रांड्स बालाजी वेफर्स की इस सफलता से हैरान और परेशान है जिसका कारण है- देसी टेस्ट, किफायती दाम और अपने ग्राहकों से सीधे रिश्ता।

आपको यह जानकर हैरानी होगी की बालाजी वेफर्स एंड नमकीन ग्रुप के आज राजकोट और वलसाड स्थित मैन्युफैक्चरिंग प्लांट्स हर रोज 38 टन और 24 टन वेफर्स बना रहे हैं। हाल ही में विरानी भाइयों ने अपने गृहराज्य के बाहर मध्यप्रदेश में 400 करोड़ रुपए का निवेश कर तीसरा मैन्युफैक्चरिंग प्लांट स्थापित किया है। पीथमपुर (इंदौर) स्थित इस प्लांट की दैनिक क्षमता 24 टन है।
एक छोटे से गांव से बाहर निकल कर इन किसान पुत्रों ने अपनी उद्यमशीलता से कई बड़े-बड़े विदेशी ब्रांड को बाज़ार में काँटे की टक्कर दी है। इनकी सफलता देखकर लगता है कि मजबूत इरादे के दम पर कुछ भी पाना असंभव नहीं है।
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