घरवालों ने बचपन में ही छोड़ दिया था साथ, खुद के बूते पढ़कर पहले प्रयास में ही बनी IAS अफ़सर

हर इंसान की जिंदगी में उतार-चढ़ाव आते हैं, कई लोगों के हिम्मत टूट जाते हैं और वो निराश होकर जिंदगी की राह में पीछे छूट जाते हैं। वहीं कुछ लोग जिंदगी की राह में आने वाली तमाम चुनौतियों का डटकर मुकाबला करते हुए अपने मंज़िल को हासिल कर लेते हैं। उम्मुल खेर एक ऐसा ही नाम है जिसने साबित कर दिया कि जिंदगी में कुछ भी हो सकता है, अगर करने की चाहत और जुनून हो। बचपन से ही अनगिनत बाधाओं का सामना करने वाली इस लड़की ने कभी हार नहीं मानी, परिस्थितियों का डटकर मुकाबला की और अपने आईएएस बनने के सपने को साकार किया।

यूपीएससी 2016 में अपने पहले प्रयास में ही 420वां रैंक हासिल कर सफलता का शानदार परचम लहराने वाली उम्मुल खेर बचपन में ही विकलांग पैदा हुई और उन्होंने विकलांगता को अपनी ताकत बनाते हुए सफलता की सीढ़ियां चढ़ती चली गई। राजस्थान के पाली मारवाड़ की रहने वाली उम्मुल बचपन से ही अजैले बोन डिसऑर्डर नाम की बीमारी से ग्रसित हैं, एक दुर्लभ बीमारी जो आमतौर पर नाजुक हड्डी संबंधी विकार के रूप में जाना जाता है। इस बीमारी ने उनके जीवन को बेहद मुश्किल भरा बना दिया था। दूसरी चुनौती यह थी कि गरीबी भी उन्हें विरासत में मिली थी।

हड्डियां कमज़ोर हो जाने की वजह से जब बच्चा गिर जाता है तो फ्रैक्चर होने की ज्यादा संभावना रहती है। इस वजह से 28 साल की उम्र में उम्मुल को 15 से भी ज्यादा बार फ्रैक्चर का सामना करना पड़ा है।

उम्मुल के पिता सड़क किनारे फुटपाथ पर मूंगफली बेचा करते थे। दिल्‍ली में निजामुद्दीन के पास स्थित झुग्गियां में पूरा परिवार गरीबी और संघर्षों से जूझता था। साल 2001 में झुग्गियां टूटने के बाद उन्होंने त्रिलोकपुरी इलाके की ओर रुख किया। उम्मुल को बचपन में ही इस बात की समझ हो चुकी थी कि यदि जिंदगी को बेहतर बनाना है तो इसके लिए शिक्षा बेहद महत्वपूर्ण है। लेकिन परिवार के लोग नहीं चाहते थे की वो आगे की पढ़ाई करें। इसी दौरान उनकी माँ का देहांत हो गया। माँ उनके लिए एकमात्र सहारा थी जो हर परिस्थिति में बेटी का साथ देती थी। घर में सौतेली माँ आई तो उनके साथ उसका रिश्ता बेहतर नहीं रहा, और अंत में उम्मुल को घर छोड़ने पर विवश होना पड़ा। उन्होंने एक किराये की मकान ली और विषम आर्थिक परिस्थिति में भी ट्यूशन पढ़ाकर अपना खर्च चलाया।

संघर्ष के दिनों को याद करते हुए उम्मुल कहती हैं कि “मैं झुग्गी के बच्चों को पढ़ाकर 100-200 रुपए कमा लेती थी। उन्हीं दिनों मुझे आईएएस बनने का सपना जगा था। सुना था कि यह सबसे कठिन परीक्षा होती है।”

उम्मुल पांचवीं तक की पढ़ाई आईटीओ में बने एक दिव्यांग स्कूल में हासिल की। उसके बाद आठवीं तक कड़कड़डूमा के अमर ज्योति चैरिटेबल ट्रस्ट में पढ़ाई की। आठवीं की परीक्षा वो अव्वल नंबर से पास की और फिर उन्हें स्कॉलरशिप का लाभ मिला। स्कॉलरशिप की बदौलत उन्हें एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ने का मौका मिला। दसवीं में 91 फीसदी और 12वीं 90 फीसदी अंक हासिल करने के बाद उम्मुल दिल्ली यूनिवर्सिटी के गार्गी कॉलेज में साइकोलॉजी से ग्रेजुएशन किया। इस दौरान भी उन्होंने अपने ट्यूशन पढ़ाने के क्रिया-कलाप को जारी रखा।

आगे की पढ़ाई के लिए वो प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी का रुख की और मास्टर डिग्री हासिल करने के बाद वहीं एमफिल में एडमिशन ले लिया। अपनी रेगुलर पढ़ाई में वो इतना व्यस्त हो गईं कि उन्हें उनके आईएएस बनने के सपने को साकार करने के लिए वक्त ही नहीं मिल रहा था। पिछले साल जनवरी में उन्होंने यूपीएसी के लिए तैयारी शुरू की और अपनी पहली कोशिश में ही 420वां रैंक हासिल करने में सफल रहीं।

एक वक़्त पर जिस परिवार ने उम्मुल से उसका साथ छोड़ दिया था, आज उस परिवार की गलतियों को वो माफ़ कर चुकी हैं। गरीबी और विकलांगता को मात देकर बेमिसाल सफलता का उदाहरण पेश करने वाली इस बहादुर लड़की के जज़्बे को जितनी बार सलाम किया जाए, कम है।

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