आज हम रंक से राजा बनने की एक ऐसी कहानी लेकर आए हैं जिसे पढ़ कर आपको विश्वास नहीं होगा कि लोगों की किस्मत इस हद तक बदल सकती है। अत्यंत गरीबी में अपना जीवन जीने वाले इस व्यक्ति को बचपन से ही एक पेट खाने के लिए बाल मजदूर बनना पड़ा। माँ को भूखे पेट मजदूरी करते देख इनके जेहन में कुछ कर गुजरने की तमन्ना पैदा हुई। अपनी गरीबी और संघर्ष को ही हथियार बना इन्होंने जिंदगी के हर एक कदम पर भरपूर मेहनत की और आज करोड़ों रूपये की कंपनी के मालिक हैं।
झुग्गी बस्ती से एक वैश्विक उद्योगपति बनने वाले भगवान गवई की जीवन-गाथा किसी फिल्म से कम नहीं है। महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में एक बेहद ही गरीब परिवार में जन्में गवई के पिता राजमिस्त्री का काम करते थे। पिता को बहुत ही कम पगार मिलती थी, जिससे चार बच्चों के परिवार को चलाना बहुत मुश्किल था। अंत में इनकी माँ भी मजदूरी करनी शुरू कर दी। साल 1964 में पिता के असमय मौत के बाद घर पर पहाड़ टूट गया। ऐसी विषम परिस्थिति में भी इनकी माँ ने हार नहीं मानी और अपने चारों बच्चों को लेकर मुंबई का रुख की।

लेकिन नए शहर में रहने के लिए छत भी मिल पाना एक बड़ी चुनौती थी। मुंबई के पश्चिमी उपनगर कांदिवली में महिंद्रा एंड महिंद्रा की जीप बनाने वाली कारखाने में माँ ने मजदूरी करनी शुरू कर दी। वहीं पास की झुग्गी में पूरा परिवार रात बिताने लगा। उस वक़्त गवई दूसरी कक्षा में पढ़ते थे। माँ को भी इस बात का बखूबी अहसास था कि जो संघर्ष उन्हें करना पड़ रहा है वह उनके बच्चे को नहीं करना पड़े और इसके लिए शिक्षा ही सबसे बड़ा हथियार है। और इसलिए उनकी माँ ने खुद का पेट काट कर बच्चों को पास के स्कूल में दाखिला दिलवाया।
लेकिन दुर्भाग्य से इसी दौरान कंपनी का काम पूरा हो गया और सारे मजदूरों की छुट्टी कर दी गई। परिणामस्वरुप फिर से चुनौतियों का पहाड़ टूट पड़ा। लेकिन माँ ने वहां से 100 किमी दूर रायगढ़ जिले में महिंद्रा की शुरू होने वाली स्टील फैक्ट्री ज्वाइन कर ली और साथ में इनके बड़े भाई भी मजदूरी करने शुरू कर दिए। कुछ सालों तक यहाँ जीवन जीने के बाद पूरा परिवार रत्नागिरी की ओर रुख किया। यहाँ उनकी जिंदगी में थोरी स्थिरता आई।
संघर्ष के दिनों को याद करते हुए गवई बताते हैं कि ” गर्मी और दिवाली की छुट्टियों में जब सारे बच्चे घूमने के लिए जाया करते थे, तब मैं अपनी माँ के साथ मजदूरी करने जाया करता था। जो 100-200 रूपये मजदूरी मिल जाती, उससे किताब आदि खरीदने में सहायता होती थी।
इसी बीच गवई ने 85 फीसदी अंक से बोर्ड परीक्षा पास की और न्यूज़पेपर में नौकरी के लिए आई एक विज्ञापन के लिए अप्लाई किया। उन्हें लार्सन एंड टुब्रो में क्लर्क की नौकरी मिल गई। नौकरी के साथ-साथ उन्होंने सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी भी शुरू कर दी और बैंक स्तर के एग्जाम भी पास कर लिए। साल 1982 में हिंन्दुस्तान पेट्रोलियम में मैनेजमेंट ट्रेनी के रूप में नई नौकरी मिली। भाग्य ने भी इनका भरपूर साथ दिया और उन्हें कंपनी की तरफ से भारतीय प्रबंधन संस्थान, कोलकाता में ट्रेनिंग प्रोग्राम करने का मौका मिला। यहाँ उन्होंने बिज़नेस के सारे गुर सीखे और उन्हें कंपनी में पदोन्नति भी मिली।
यहाँ काम करते हुए गवई ने वितरण का काम अच्छे से सीखा और साल 1991 में बहरीन की ओर रुख करने का फैसला किया। यहाँ उन्होंने मोटी तनख्वाह पर नौकरी करते हुए सबसे ज्यादा सेविंग्स पर जोर दिया। एमिरेट्स नेशनल आयल कंपनी के साथ काम करते हुए उन्हें दुबई जाने का मौका मिला और यहाँ उन्होंने देखा कि कई अनपढ़ लोग आयल से संबंधित बिज़नेस कर रहे थे। फिर उन्होंने सोचा कि जब कोई अनपढ़ कारोबार कर सकता है तो फिर मैं क्यों नहीं? इसी प्रेरणा के साथ उन्होंने वहां के एक लोकल कारोबारी के साथ साझेदारी करते हुए एक फ्यूल कंपनी की आधारशिला रखी।

उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। फ्यूल कंपनी की सफलता के बाद उन्होंने अपने बेटे सौरभ के नाम पर “सौरभ एनर्जी” नामक एक कंपनी बनाई। आज कंपनी का सालाना टर्नओवर 128 करोड़ रूपये है।
कभी 100-200 रुपये पर मजदूरी करने वाले शख़्स आज करोड़ों रुपये की कंपनी के मालिक हैं, इससे शानदार सफलता और क्या हो सकती है? कहानी पर आप अपनी प्रतिक्रिया नीचे कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं।
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