प्रेरणादायक: रोजगार की तलाश में चीन से भारत आई यह महिला आज है देश की एक सफल उद्यमी

अपनी ही जाति या समुदाय में भी खुद को स्थापित करने में बहुत ज्यादा मेहनत और जीवट की आवश्यकता होती है तो ज़रा सोचिये दूसरे समुदाय में सफलता के बीज बोने में कितना कठिन परिश्रम करना पड़ता होगा। ऐसी ही कहानी मोनिका लिउ की है जिन्हें ‘डॉन ऑफ़ टंगरा’ के नाम से नवाज़ा गया है।

मोनिका एक साहसी और दृढ़ संकल्प वाली महिला हैं। उनका आत्मविश्वास बहुत ही प्रबल है और इसी के बल पर उन्होंने दूसरे समुदाय में अपने सफलता का झंडा फहराया है। उनकी यह कहानी आसान नहीं है। उन्होंने ऐसे-ऐसे संघर्ष झेले हैं जिन्हें लोग सपने में भी नहीं सोच पाते। मोनिका अपने ही देश में एक रिफ्यूजी की भांति जीवन बिताने के लिए मजबूर थीं और बहुत समय तक अपने आधारभूत अधिकारों से भी वंचित थीं। उनका भारत से संबंध उस समय से है जब उनके पिता काम की तलाश में 14 वर्ष की उम्र में चीन से भारत आये थे। 

मोनिका बताती हैं कि “हमारे दादा-दादी की आर्थिक स्थिति बहुत ही कमजोर थी और वे बूढ़े और बीमार हो गए थे।  मेरे पिता ने यह सुन रखा था कि भारत में रोज़गार के बहुत अवसर हैं और तब उन्होंने यह तय किया कि वे कोलकाता में अपनी किस्मत आज़माएंगे।

1940 में उनके पिता जूतों की दुकान में काम कर 50 रूपये महीने कमाते थे और सारा का सारा पैसा बचाकर घर भेजते थे। पर जब 1950 में उनका विवाह चीन की वोंग मेई योंग से हुआ और 1953 में जब मोनिका पैदा हुईं तब उनके कमाए पैसे घर चलाने के लिए नाकाफ़ी थे।

सब कुछ अपने हिसाब से चल रहा था पर एक समय ऐसा तूफ़ान आया जो उनकी नींव तक हिला गया। उनके पिता की अपने मालिक के साथ अच्छी-खासी बहस हो गई। यह उनके परिवार के लिए तबाही लेकर आया जो पहले से ही अपने जीवन को जीने के लिए संघर्ष कर रहे थे। तब उन्होंने कलिमपोंग जाने का निश्चय किया और वहां पर अपनी बचत के पैसों से एक रेस्टोरंट खोला। उनके पिता की बहुत ही छोटी सी दुकान थी जिसमें थुपा और कुछ चाइनीस करी बेचा जाता था। जैसे-तैसे उनकी जिंदगी चल रही थी, तभी भारत-चीन बॉर्डर पर कुछ तनाव हो गया और इसकी वजह से उन्हें कलिमपोंग भी छोड़ना पड़ा।

एक के बाद एक इस तरह की घटनाएं उनके आत्मविश्वास को हिलाने के लिए काफ़ी थीं परन्तु फिर भी कुछ समय के बाद उनके परिवार ने अपना साहस एक बार फिर बटोरकर एक छोटी सी नयी शुरूआत की। परन्तु भाग्य को कुछ और ही मंजूर था।1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद उनकी जिंदगी का और भी बुरा वक्त आ गया। एक दिन बहुत ही सबेरे सैनिक आकर उन्हें अपना सामान बांधने को कहते है और उन्हें जयपुर भेज दिया गया जहां उनसे पहले 20,000 रिफ्यूजी टोंक जिले के डोली में मौजूद थे।

1968 में छह साल तक कैंप में बिताने के बाद मोनिका ने एक साहस भरा कदम उठाया। उन्होंने बिना डरे गृहमंत्री को एक पत्र लिखा और उनके पत्र की वजह से सरकार ने यह तय किया कि वे उन्हें कैंप से छोड़ देंगे। वहां से निकलकर वे फिर से शिलांग आ गए। उनकी माता स्कूल के बाहर थुपा बनाकर बेचा करती थी। 

1971 में मोनिका की शादी लिउकुओ चाओ से हुई जिसका कोलकाता में लैदर का बिज़नेस था। उन्होंने अपने परिवार की मदद करने के लिए लैदर के लिए उपयोग में आने वाले केमिकल बेचने लगी। कुछ समय के बाद अपने भाई से प्रेरित होकर उन्होंने उधार के दो लाख रूपये से अपना सैलून खोला। परन्तु अपने छोटे बच्चों की वजह से यह काम छोड़ दिया। परन्तु इस समय तक उनके मन में एक इंटरप्रेन्योर ने जन्म ले लिया था।

1991 में उन्होंने अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से लोन लेकर अपना खुद का एक रेस्टोरेंट खोला जिसका नाम दिया किम-लिंग। उनके पूरे  स्टाफ में उनके परिवार वाले ही थे। जल्द ही मोनिका एक दिन में 1500 रूपये कमाने लगी। आज मोनिका ‘डॉन ऑफ़ टंगरा’ के नाम से जानी जाती है और यह सब न केवल उनके रेस्टोरेंट की वजह से बल्कि उनके साहस की वजह से।

1993 में उन्होंने 20 लाख लोन लेकर अपना दूसरा रेस्टोरेंट मैंडेरिन खोला। 1998 में 50 लाख के इन्वेस्टमेंट का बीजिंग में टंगरा नामक रेस्टोरेंट खोला। आठ साल के बाद पार्क स्ट्रीट में तुंग फोंग नामक रेस्टोरेंट खोला। उनका पांचवा रेस्टोरेंट मैंडेरिन था जिसमें लेक व्यू था।

आज मोनिका ने 250 लोगों को रोज़गार दिया है और उनका रेस्टोरेंट आज सफलता के शिखर पर पहुंच गया है। 2003 में उन्हें कोलकाता क्लब के द्वारा वीमेन इंटरप्रेन्योर अवार्ड दिया गया। नए इंटरप्रेन्योर के लिए उनकी यह सलाह है “अगर आप को पता है कि कैसे कठिन परिश्रम और संघर्ष करना है तो आप जीवन में हर चीज़ हासिल कर सकते हैं।”

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