बड़े भाई द्वारा बेदखल किये जाने के बाद शून्य से की शुरुआत, अब 5,000 करोड़ टर्नओवर है इनका लक्ष्य

जीवन के बेरहम थपेड़े जब आपकी हस्ती को मिटा देने पर तुल जाएँ तब, बिना किसी निर्देश पुस्तिका या दिशा निर्देश के, बिखरे हुए टुकड़ों को समेट कर अपने आप का फिर से निर्माण आसान बिलकुल आसान नहीं होता। मंज़िल की ओर बढ़ते हुए यदि थका देने वाले रास्ते और तंग गलियां आपके स्वागत को खड़ी मिले तो उसका एक ही मतलब होता है कि जिंदगी और भी बड़ी बाधाओं से दो-दो हाथ करने के लिए आपको तैयार कर रही है। परिस्थिति कितनी भी विपरीत हो जाए, जहाँ आप खड़े हैं वहां से आगे बढ़ना ही सबसे महत्वपूर्ण होता है।

अशोक कपूर की जीवन गाथा इस बात को बड़े सलीके से समझाती है कि यदि आप डटें रहें तो आप कुछ भी हासिल कर सकते हैं। जब उनसे सब कुछ छिन गया उन्होंने अपने सारे सबक और अथक परिश्रम के सहारे अपनी खुद की एक शानदार कंपनी खड़ी कर ली।

अशोक एक उद्योगपति – परिवार में पले-बढ़े। उनका परिवार बहुत पहले 1889 में स्थापित ज्वेलरी बिज़नेस के कारोबार में था। वे सोना कोयो स्टेयरिंग के मालिक हैं। अशोक जिसके को-प्रमोटर बने।

सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था पर 1993 में जब परिवार में बंटवारे की बात आई, सब कुछ बदल गया। परिवार के बिज़नेस के बड़े और महत्वपूर्ण हिस्से उनके भाई के हिस्से आये। 47 की उम्र में अशोक अचानक बिखर गए। वह लगभग लुटे से रह गए थे। वे रात भर उनींदी आँखों से सिर्फ इस चिंता में जागते रहते कि अपने अचानक टूट चुके सपनों के मलबों से आख़िर कैसे बाहर आया जाए।

जब कहीं से भी किसी मदद की आस नहीं दिखाई दी तो उन्होंने बिज़नेस के अपने अनुभवों के सहारे खुद को खड़ा करने का निश्चय किया। 1994 में उन्होंने शून्य से शुरूआत करते हुए कृष्णा मारुती लिमिटेड नाम के कंपनी की स्थापना की। कंपनी को ऑटो क्षेत्र की दिग्गज जापानी कंपनी सुजुकी को कार की सीट्स सप्लाई करनी थी। पिछली अनगिनत रातों को जागकर विभिन्न विकल्पों के बारे में अशोक ने माथा पच्ची की थी, उसके अच्छे परिणाम आने लगे थे।

बाज़ार उछाल पर था और अशोक जानते थे कि कैसे उस मौके को भुनाया जाए। देखते ही देखते उनका बिज़नेस कई गुना बढ़ गया और उन्होंने कार की सीट्स और भी कई कंपनियों को सप्लाई करने लगे।

पर सब कुछ वैसा ही चलता रहता तो परियों की कहानी न हो जाती। अशोक को अभी कुछ और भी इम्तिहान देने थे। पहले ही साल उन्हें 18 दिन लम्बे मजदूर हड़ताल का सामना करना पड़ा। इस समस्या से जूझने में उनके कितने ही बेशकीमती दिन शहीद हो गए और उत्पादन पर भी अच्छी ख़ासी मार पड़ी। उन दिनों कितनी ही रातें उन्हें फैक्ट्री में ही बितानी पड़ी। एक और भी झटका उन्हें तब लगा जब 11 लाख रुपये कीमत की कार सीट्स रिजेक्ट हो गई क्योंकि वह निर्धारित पैमाने से बाहर थी। इन दो बड़े आघातों के बावजूद अशोक ने उफ़ तक नहीं की और अपनी गुणवत्ता को बढ़ाने में जुटे रहे। क्वालिटी के क्षेत्र  में प्रतिष्ठित डेमिंग पुरस्कार जीतने वाली, उनकी कंपनी, पहली कार सीट बनाने वाली कंपनी हो गई। आने वाले सालों में कंपनी के कर्मचारियों की संख्या भी बढ़ी और उत्पादन भी।

2005 में उन्होंने मार्क ऑटो नाम की कंपनी को खरीद लिया और उसे सत कृष्णा हनुमान (SKH) मेटल्स का नाम दिया। जल्द ही अशोक ने अपना ध्यान रोजमर्रा के कामकाज़ से हटा कर दूरगामी नीतिगत मसलों पर लगाना शुरू किया। उन्होंने कई जॉइंट वेंचर्स की योजनाएं बनाई ताकि उसके कंपनी के उत्पादों में विविधता रहे। और फिर कभी उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

बिज़नेस के अलावा मानव कल्याण के कामों से भी जुड़े रहे हैं। वो लोगों की सेवा और समाज को लौटने में विश्वास करते हैं। वे गुड़गांव के पास अपने गांव नरसिंगपुर में एक सामुदायिक निर्माण में लगे हैं जिसके अंतर्गत एक हॉस्पिटल, एक स्कूल, एक तकनीकी संस्थान और एक अनाथालय का प्रावधान है।

“नए प्रोजेक्ट्स में सात सौ करोड़ रुपयों के निवेश के साथ अशोक की कंपनी पांच हजार करोड़ रुपयों के विशाल टर्न-ओवर के लक्ष्य को पाने की ओर अग्रसर है।”

अशोक की तरह के व्यक्तित्व हमें यह दिखाते हैं कि जिंदगी में आई बड़ी गिरावटें सिर्फ सफलता के प्रति आपकी लगन आपके जीवट की परीक्षाएं होती हैं। यदि उन्होंने आशा का दामन छोड़ दिया होता तो न केवल वे अपनी दयनीय दशा से उबरने में नाक़ामयाब होते बल्कि लाखों जिंदगियों को जिस तरह से उन्होंने छुआ है वह भी संभव नहीं हो पाता।


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