आज हमारे देश का विकास होने के साथ ही देश में खेती का भी विकास हो रहा है। कृषि के साथ नित नए अनुप्रयोग किये जा रहे हैं और उसे व्यवसायिक बनाए जाने के प्रयास लगातार किये जा रहे हैं। लेकिन आज भी देश में बहुत कम किसान हैं जो अपनी परंपरागत खेती के साथ कोई नया प्रयोग करने का साहस जुटा पाते हैं। वहीं कुछ किसान ऐसे हैं जिन्होंने खेती के मायनों को बदल कर रख दिया है। हम आज बात कर रहे हैं पंजाब के मनिंदर पाल सिंह रियार और मनजीत सिंह तूर की, जो आधुनिक भारत के आधुनिक किसान हैं। उनके द्वारा उपजाई गुलाब की महक सिर्फ पहाड़ों में ही नहीं बल्कि दूसरे देशों में भी फ़ैल रही है। मनिंदर और मंजीत की पढ़ाई तो कनाडा में हुई लेकिन अपने देश की मिट्टी की खुशबु उन्हें वापस स्वदेश खिंच लाई।
हरित क्रांति के बेल्ट पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कृषि के इस बुरे हालातों के दौरान भी मौके को भांपने की क्षमता रखने वाले किसान मनिंदर और मनजीत ने गेहूं–चावल की खेती के परंपरागत चक्र से खुद को बाहर निकाला और गुलाब की व्यावसायिक खेती का रास्ता चुना। उनके फार्म में उपजे गुलाब को तेल और गुलाब जल के व्यावसायिक उत्पादन के लिए भेजा जाता है। साथ ही उनके खेत के गुलाब हिमाचल प्रदेश के चिंतपूर्णी और ज्वालामुखी के मंदिर में देवी–देवताओं को चढ़ाए जाते हैं। ये वे किसान हैं जिन्होंने गुलाब की खेती से अपनी सफलता की कहानी लिखी है। साथ ही मनिंदर और मंजीत ने होशियारपुर के कांगर गांव में गुलाबों से रस निकालने का एक प्लांट भी लगा रखा है।
मनिंदर और मनजीत ने 90 के दशक में न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली पारंपरिक खेती में आने वाली दुश्वारियों का अंदाजा लगा लिया था। शायद यही वजह रही कि उन्होंने कनाडा में पढ़ाई करने के बावजूद खेती की जमीन हिंदुस्तान में खरीदी। दोनों ने हिमाचल की सीमा पर शिवालिक की तलहटी में कुछ पथरीली जमीन खरीदी।
मनिंदर और मनजीत बताते हैं कि “हमने शिवालिक की तलहटी में जो जमीन खरीदी थी वो काफी पथरीली और कंकड़ भरी थी, लेकिन वो बहुत उपजाऊ थी जो फूलों की खेती के लिए किसी जन्नत से कम नहीं थी।”
अब आपके जहन में एक और बात आना लाजमी है कि मनिंदर और मनजीत दोनों भाई होंगे लेकिन नहीं ज़नाब मनिंदर जालंधर के रहने वाले हैं तो मनजीत पटियाला के भवानीगढ़ से ताल्लुक़ रखते हैं। लेकिन ये दोनों बहुत अच्छे दोस्त हैं, उनके परिजन आज भी गांवों में पारंपरिक खेती करते हैं लेकिन ये दोनों दोस्त पहाड़ की गोंद में गुलाब की व्यवसायिक खेती कर रहे हैं।
मनजीत बताते हैं कि “सबसे पहले अचार और सॉस बनाने के लिए हमने आंवला के उत्पादन से शुरुआत की थी लेकिन उसमें ज्यादा सफलता नहीं मिली और फिर दो साल के भीतर ही हम गुलाब उत्पादन की ओर मुड़ गए।“
मनिंदर और मनजीत ने 25 एकड़ के क्षेत्र में गुलाब की खेती शुरू करने से पहले हिमाचल प्रदेश के पालमपुर स्थित हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ बायोटेक्टनोलॉजी से तीन महीने का प्रशिक्षण प्राप्त किया, जिससे वे सफलतापूर्वक गुलाब की खेती में अपना भाग्य आज़मा सकें। वहाँ उन्होंने गुलाब की खेती, गुलाब तेल, गुलाब जल के लिए रस निकालना आदि का विधिवत प्रशिक्षण लिया। मनिंदर ने बताया कि “वहाँ हमने गुलाब की संकर किस्म बुल्गारिया रोजा डेमसेना का पूर्ण अध्ययन किया जो हमारी मिट्टी और जलवायु दोनों के लिए अनुकूल थी।”

मनिंदर ने कनाडा के टोरंटो स्थित रोटमैन स्कूल ऑफ़ मैनजमेंट से स्नातक पूरा किया और अब अपनी खेती में हर दिन नए-नए प्रयोग करते रहते हैं। इन दोनों दोस्तों की खेती की राह इतनी आसान नही थी और वैसे भी गुलाब के साथ काँटों का होना तो लाज़मी है तभी तो शुरुआत में दोनों भागीदार को भारतीय बाज़ार के लिए देशी गुलाब को विकसित करने में चार साल का समय लग गया। गुलाब की खेती शुरू करने के कुछ समय के भीतर ही करीब तीन साल में वो न्यूयॉर्क स्थित फ्रेंच कंपनी को गुलाब तेल और गुलाब जल का निर्यात करने लगे। लेकिन उनका यह काम लंबे समय तक नहीं चल पाया क्योंकि उनके ग्राहक एक निश्चित मात्रा में माल चाहते थे पर उत्पादन में उतार–चढ़ाव की वजह से ऐसा सम्भव नहीं हो पाता था। उन्हें अपने माल को कम मुनाफे में भारतीय बाजार में ही बेचना पड़ता था।
कुछ समय बाद दोनों ने एक तरक़ीब निकाली की एक किस्म की बजाय अलग–अलग किस्म की फसल उगाई जाए। उसके बाद से एक रेड रोजा बोरबोनियाना किस्म उगाता है तो दूसरा पिंक रोजा दमासेना किस्म उगाता हैं। जो मार्च–अप्रैल के महीने में छह हफ्ते के लिए खिलती है। 4 एकड़ में फैले रोजा बोरबोनियाना से प्रतिदिन फूल तोड़े जाते हैं और उसे कांगड़ा जिले में स्थित ज्वालाजी मंदिर और उना के चिंतपूर्णी मंदिर में भेज दिया जाता है। जून–जुलाई के महीने में तो उनके गुलाबों की मांग बढ़कर 80 किलोग्राम प्रतिदिन पहुंच जाती है और साल के बाकी महीने में गुलाबों की मांग 40 से 60 किलोग्राम प्रति दिन रहती है। गुलाब के फूलों को एक बस के जरिए पहले होशियारपुर भेजा जाता है और उसके बाद इन्हें दोनों मंदिरों में भेज दिया जाता है। मनिंदर और मंजीत खेतों की ऊर्वरता को बनाए रखने के लिए फसलों की समय-समय पर अदला–बदली करते रहते हैं। 12 साल के उतार–चढ़ाव के बाद अब उनका खेत पूर्ण रूप से तैयार है।
वे दोनों ही गुलाब के फूल को तोड़ने के समय को लेकर बेहद संवेदनशील हैं उनके अनुसार फूल को तोड़ने का सबसे अच्छा समय या तो सूर्योदय के वक्त है या फिर सूर्यास्त से पहले जिस समय फूल सबसे ज्यादा सुगंध देता है। फूल के उत्पाद को बाज़ार में भेजने से पहले गुलाब के रस की जांच बेंगलुरु स्थित काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च के फ्रेगरेंस एंड फ्लेवर डेवलपमेंट सेंटर की प्रयोगशाला में की जाती है। उनके फार्महाउस पर ही गुलाब तेल और गुलाब जल को स्वदेशी तरीके से तैयार किए गए प्लांट में बनाया जाता है। साथ ही ये दोनों स्थानीय लोगों को रोजगार भी उपलब्ध करा रहे हैं। गुलाब की खेती मजदूर आधारित है। रोजा बोरबोनियाना किस्म की खास गुलाब को प्रतिदिन तोड़ा जाता है और इसके लिए होशियारपुर फार्म पर करीब 35 मजदूर दिन-रात काम करते हैं। यहां प्रत्येक मजदूर 250 रु प्रतिदिन कमाते हैं। तो दूसरी ओर 10 से 12 साल में एक बार में करीब एक एकड़ में खेती के दौरान उन्हें 40 हजार रुपये का खर्च आता है और प्रति वर्ष 800 से एक हजार किलो प्रति एकड़ पैदावार में पांच हजार किलो गुलाब से एक किलो गुलाब तेल तैयार किया जाता है जिसकी बाज़ार की बिक्री कीमत 5 से 6 लाख रूपये तक होती है।
मनिंदर और मनजीत आज गुलाब की खेती में पारंगत हो चुके हैं। अब उन्हें अच्छे से पता है कि गुलाब को कब, कैसे उगाना है और कैसे तोड़ना है। आज इन दोनों दोस्तों ने साबित कर दिया है कि हमारे देश की मिट्टी की क्षमता क्या है। गुलाब की व्यवसायिक खेती ने मनिंदर और मंजीत का भविष्य तो महका दिया, साथ ही अन्य लोगों के लिए खेती का अलग और उपयोगी स्वरूप भी स्पष्ट कर दिया है।
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