22 रुपये की पहली कमाई से 5 करोड़ का टर्नओवर, कैसे IIM टॉपर ने सब्ज़ी बेचकर बनाया करोड़ों का साम्राज्य

एम.बी.ए. आज एक सर्वमान्य और प्रचलित डिग्री है। जिससे बड़े कॉरपोरेट हाउस में उच्च पद पर बढ़िया तनख्वाह वाली नौकरी के रास्ते आसान हो जाते है। और जब यह डिग्री देश की सबसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक सस्थान भारतीय प्रबंधन संस्थान, अहमदाबाद (IIMA) से गोल्ड मेडल के साथ मिली हो तो फिर देश-विदेश की कंपनियां शानदार ऑफर के साथ काम की पेशकश करती है। कुछ तो नौकरी ज्वाइन करके आराम की जिन्दगी बिताते हैं, कुछ स्वयं का व्यवसाय आरंभ करते है परंतु कुछ ऐसे विरले होते हैं जो अपनी मिट्टी और अपने समाज के वंचित लोगों के लिए काम करना चाहते हैं। उन गरीब किसान और छोटे व्यपारियों के लिए काम करना चाहते हैं जो हाथ ठेला पर सब्जियाँ बेच कर दो जून की रोटी के लिए हर मौसम दिन-रात जद्दोजहद में लगे रहते हैं।

ऐसे ही विरले है मिट्टी के लाल कौश्लेन्द्र कुमार। बिहार के नालंदा जिले के मोहम्मदपुर गाँव में जन्मे कौश्लेन्द्र अपने भाई बहनों में सबसे छोटे हैं। इनके माता-पिता दोनो गाँव के स्कूल में टीचर हैं। जब कौश्लेन्द्र पाँचवी कक्षा में थे तो उनका दाखिला अपने घर से 50 कि.मी. दूर नवोदय विद्यालय में हो गया। इस विद्यालय में प्रतिभावान छात्र के लिए आर्थिक स्थिति कोई मायने नहीं रखती क्योंकिं यहाँ के छात्रों के लिए खाना कपड़ा रहना पढ़ाई-लिखाई आदि सभी सुविधा मुफ्त उपलब्ध कराई जाती है।

नवोदय विद्यालय से निकलने के बाद वह आई.आई.टी. से बी.टेक. करना चाहते थे। लेकिन किस्मत उनके हाथों किसानों की बदहाली दूर करवाना चाहती थी। उन्होंने इण्डियन काॅउसलिंग ऑफ़ एग्रीकल्चर रिसर्च जूनागढ़ (गुजरात) से बी.टेक. किया। पढ़ाई के दौरान उन्होंने पाया कि वहाँ के लोग कितनी समृद्धि पर है और तब वे अपने गाँव के लोग को याद करते थे जो मजदूरी के लिए गुजरात जाया करते थे। तभी उन्होंने बिहार को बदलने की और यहाँ के लोगों के लिए रोजगार मुहैया कराने और एक समृद्ध बिहार बनाने का तय कर लिया। 2003 में बी.टेक. पास करने के बाद उन्हें 6,000 रुपये मासिक की नौकरी मिली। यह एक सिंचाई उपकरण बनाने वाली फर्म थी। लेकिन कुछ ही दिनों में नौकरी छोड़ कर वो CAT की तैयारी में जुट गये। आई.आई.एम. अहमदाबाद में उन्होंने गोल्ड मेडल के साथ टाॅप किया।

मैनेजमेंट की पढ़ाई के बाद उन्होंने नौकरी नहीं करने का फैसला लिया और 2007 में पटना लौट आए। एक संगठित रुप से किसानों और वेंडरों को जोड़ कर एक संगठित सब्जी व्यापार की योजना बनाई। अपने भाई के साथ मिलकर उन्होंने “कौशल्या फाउन्डेशन” की स्थापना की। मगर पैसों की कमी के कारण कई महीने उन्हें पटना के गलियों की खाक छाननी पड़ी। लोगों ने उनके इतने पढ़े लिखे हो कर बेरोजगार होने का उपहास किया। पर कौश्लेन्द्र अपने राह से विचलित नहीं हुए। फरवरी 2008 में परियोजना “समृद्धि” की शुरुआत की। धीरे-धीरे इस योजना के तहत आज 20,000 से अधिक किसान जुड़ गये हैं और 700 लोग इस कम्पनी में काम भी करते हैं।

कौश्लेन्द्र ने “फ्राॅम फ्रेश प्रोड्यूस (FFP)” रिटेल सप्लाई चेन माॅडल अपना कर बिहार में बिखरे हुए सब्जी उत्पादकों और विक्रेताओं को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। इस परियोजना से जुड़े स्टाफ किसानों से सब्जी एकत्रित कर विक्रेताओं तक पहुंचाते हैं। किसानों को खेती से जुड़ी हर संभव सहायता और सलाह दी जाती है। कौश्लेन्द्र चाहते हैं कि वह एक ऐसा फर्म बनाए जहाँ सब्जी उपजाने वाला किसान बाजार के बदलते स्वरुप जैसे रिटेल में एफ.डी.आई. आदि का बखूबी सामना कर सके और मोलभाव में सक्षम हो।

खेतों से निकलने के बाद सब्जियों की ताजगी बनाए रखना जरुरी है। इसके लिए कौशल्या फाउन्डेशन पटना और नालंदा के संकरी गलियों के लिए “आईस कोल्ड” पुश कार्ट (हाथ ठेला) तैयार किया है। फाईबर से बने इस ठेले की क्षमता 200 किलो वजन उठाने की है। इसमें इलेक्ट्राॅनिक तराजू भी लगे हैं। इसमें सब्जियाँ 5-6 दिनों तक ताजी रहती है। बड़े रिटेलरों को टक्कर देने के लिए ये पुश कार्ट ग्राहकों के दरवाजे तक सस्ती और ताजी सब्जियाँ पहुंचाती है। फाईबर पुश कार्ट की कीमत 40-50 हजार तक की होती है।

पटना के एक स्कूल के पीछे छोटी सी दुकान से जब शुरुआत की थी तो पहले दिन की कमाई 22 रुपये हुई थी। मेहनत, लगन और एकाग्रता से आज कौशल्या फाउण्डेशन का सालाना टर्नओवर 5 करोड़ पहुंच गई है। कई सामाजिक संगठन, कृषि संस्थाएँ और बैंक कौश्लेन्द्र के इस प्रयास में जुड़ रहे हैं और सहयोग दे रहे हैं। समृद्धि योजना के शुरुआत से इसमें जुड़े किसानों की आय में 25-50 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है जबकि सब्जी वेंडरों के आय में 50-100% तक की वृद्धि हुई है। वेंडरों की अब औसतन मासिक कमाई 8,000 तक पहुंच गई हैं। जहाँ पहले उन्हें 14 घण्टे काम करने पड़ते थे अब काम के घण्टे घट कर 8 घण्टे रह गये हैं। कौश्लेन्द्र इस सफलता के लिए अपने प्रबंधन संस्थान के शिक्षकों और मित्रों के सहयोग को श्रेय देते हैं। अपनी माँ के हिम्मत और हौसला अफजाई को इस सफलता का मूल मानते हैं।

कौश्लेन्द्र का यह प्रयास अपने क्षेत्र और वहाँ के सब्जी उत्पादकों और वेंडरो के लिए एक बहुत बड़ा प्रयास है। साथ ही साथ उन लोगों के लिए यह शिक्षा है जिन्हें खेती-बाड़ी में अवसरों की कमी नज़र आती है। किसान सिर्फ खेती करना जानते हैं विज्ञान, प्रौद्योगिकी, सरकारी योजनाएं, उन्नत किस्में, नये उपकरणों, बाजार विपणन आदि की जानकारी उन्हें नहीं हो पाती है। इस प्रकार ऐसे कई अवसर है जिन्हें अपनाकर शिक्षित युवा वर्ग स्वरोजगार के साथ ही साथ शोषण का शिकार हो रहे किसानों के हितों की रक्षा भी कर सकता। जरुरत है तो कौश्लेन्द्र जैसी कर्मठ सोच और दृढ़ संकल्प की।

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