आज की दुनिया में ज्यादातर लोग यह सोचते हैं कि उन्हें सफलता रातों रात मिल जाए और इसके लिए उन्हें सही-गलत की परवाह बेमानी लगती है। या उन्हें यह लगता है कि सफल व्यक्ति अपने जीवन में सफलता के मुकाम आसानी से पहुँच जाते या फिर उन्हें यह विरासत में मिली है। लेकिन ऐसा सोचने वाले शायद उन सफल व्यक्तियों की सफलता के पीछे छिपे जीवन के कठिन से कठिन संघर्षों, असफलताओं और समाज द्वारा हतोत्साहित करने वाले व्यवहार से वाकिफ़ नहीं होते हैं। एक ऐसी ही शख्सियत के संघर्ष की दास्ताँ शुरू होती है बनारस की तंग गलियों में ऐसी जगह से जहाँ शोर–गुल की कोई कमी नहीं थी और थोड़ी बहुत जो कसर बाकी रह जाती वो अगल–बगल मौजूद फैक्ट्रियों और जेनरेटरों का शोर पूरा कर दिया करता था, एक ऐसा माहौल जहाँ एक-दूसरे से बात करना भी मुश्किल था।
12×8 फीट के किराये के मकान में रहने वाले एक रिक्शा चालक नारायण जायसवाल के बेटे गोविन्द जायसवाल ने बचपन से ही अपने पिता को संघर्ष करते देखा। उन्होंने ठान लिया कि वे अपने परिवार को एक उचित सुविधायुक्त और सम्मानजनक वातावरण देंगे। लेकिन इन परिस्तिथियों में अपने लक्ष्य को प्राप्त करना बेहद कठिन था। अपने संघर्ष के बारे में गोविंद बताते हैं कि ‘मेरी परिस्थतियां ऐसी थीं कि सिविल सर्विस की तैयारी करने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था क्योंकि सरकारी नौकरियाँ ज्यादातर फिक्स होती हैं इसलिए उनमें मेरे लिए मौके नहीं थे। ना ही मेरे पास इतना रुपया था कि मैं अपना बिज़नेस शुरू कर सकूँ। इस स्थिति में मेरे सामने केवल यह विकल्प था कि मैं खूब पढ़ाई करूँ और सिविल सेवा की परीक्षा पास करूँ।“

उस छोटे से कमरे में गोविंद अपने माता–पिता और दो बहनों के साथ रहते थे। उन्हें अपना सारा काम उस कमरे में ही पूरा करना होता था ऐसी परिस्थिति में भी गोविंद ने वहीं से पढ़ाई करना शुरू किया। आस–पास के शोर से बचने के लिए अपने कानों में रुई लगाते और जब शोरगुल बहुत ज्यादा होता तो वे गणित पढ़ने लगते और जब कुछ शांती होती तो अन्य विषय की पढ़ाई करते। रात में पढ़ाई के लिए अक्सर गोविंद मोमबत्ती, ढेबरी आदि का सहारा लेते क्योंकि जहाँ वे रहते थे वहाँ १२–१४ घंटे की बिजली कटौती हुआ करती थी। अपनी पढ़ाई और किताबों का खर्चा निकालने के लिए गोविंद ने कक्षा 8 से ही बच्चों को ट्यूशन देना शुरू कर दिया।
गोविंद बचपन से ही पढ़ाई में बहुत होशियार थे और विज्ञान विषय में तो उन्हें महारत हासिल थी। यही कारण था कि कक्षा 12 के बाद कई लोगों ने गोविंद को इंजीनियरिंग करने की भी सलाह दी और एक बार उनके मन में भी यह विचार आया कि इंजीनियरिंग की जाए। लेकिन जब उन्हें मालूम पड़ा कि केवल एप्लीकेशन फॉर्म का शुल्क ही 500 रु है तो इस सोच में डूब गये कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई का शुल्क कितना अधिक होगा। और फिर गोविंद ने इंजीनियर बनने का इरादा मन से निकाल दिया और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में स्नातक की पढ़ाई के लिए दाखिला लिया।
संघर्ष के दिनों को याद करते हुए गोविन्द बताते हैं कि लोग उन्हें कहा करते थे “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे बेटे के साथ के खेलने की। तुम्हें पता भी है तुम क्या हो और कहां से आते हो? पढ़–लिखकर ज्यादा से ज्यादा क्या कर लोगे तुम कितना भी पढ़ लो चलाना तो तुम्हें भी रिक्शा ही है अपने पिता की तरह।“
ये वही शब्द थे जिन्हें सुन–सुन कर गोविंद जायसवाल बड़े हुए। अपने लिए इस प्रकार के शब्द सुनकर गोविंद हमेशा यही सोचते कि वे ऐसा क्या करें कि लोग उन्हें व उनके परिवार को सम्मान दें। इसी सम्मान को पाने के लिए उन्होंने शिक्षा को अपना रास्ता बनाया क्योंकि गोविंद बखूबी जानते थे कि शिक्षा के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है जो उन्हें समाज के इस नज़रिये से मुक्ति प्रदान कर सके। दृढ़ इच्छाशक्ति के मालिक गोविंद को अपनी मेहनत पर यक़ीन था। गोविंद कहते हैं कि “मुझे अपने लक्ष्य से डिगा पाना असंभव था। और यदि कोई मुझे हतोत्साहित करता तो मैं अपने परिवार के संघर्ष के बारे में सोचने लगता।“
गोविंद ने अपने आई.ए.एस अफ़सर बनने के सपने को पूरा करने के लिए तैयारी करने हेतु दिल्ली का रुख किया जिसमे उनके परिवार ने उन्हें पूरा सहयोग प्रदान किया। तैयारी सामान्य रूप से चल ही रही थी कि उस दौरान ही उनके पिता के पैर में एक गहरा घाव हो गया जिसके चलते वे रिक्शा चलाने में असमर्थ हो गये इस परिस्थिति में गोविंद की पढ़ाई और परिवार का गुजारा मुश्किल होने लगा। ऐसे में गोविंद के पिता ने अपनी एक छोटी सी ज़मीन जो की उनकी एक मात्र पुश्तैनी संपत्ति थी, उसे 30,000 रु में बेच दिया ताकि गोविंद अपनी कोचिंग पूरी कर सकें। लेकिन फिर भी आवश्यकता पूरी नहीं हो पाई तो गोविंद ने ख़र्चा चलाने के लिए बच्चों को गणित की ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिए। परीक्षा की तैयारी के दौरान गोविंद लगातार 18 घंटे पढ़ाई करते थे और पैसा बचाने के लिए कई बार खाना तक नहीं खाते थे। गोविंद ने भी अपने पिता और परिवार के त्याग और विश्वास को विफल नहीं होने दिया।
गोविंद ने अपनी मेहनत के दम पर मात्र 24 साल की उम्र में अपने पहले ही प्रयास में साल 2006 में कुल 474 सफल होने वाले प्रतिभागियों में 48वाँ स्थान प्राप्त कर अपने और अपने परिवार के सपने को ही साकार नहीं किया अपितु अपनी और परिवार की ज़िंदगी हमेशा–हमेशा के लिए बदल कर रख दी। परिणाम आने से पहले कई दिनों तक उनके पिता चिंता के कारण सो नहीं पाए थे। लेकिन जब रिजल्ट आया तो पूरे परिवार की आँखों में आँसू आ गए। गोविंद अपनी सफलता का श्रेय अपने पिता और अपनी बहनों को देते हैं। विशेष रूप से उस बड़ी बहन को जिसने मां की मौत के बाद घर वालों की देखभाल करने के लिए अपनी पढ़ाई तक छोड़ दी थी।
अचरज की बात तो यह है कि गणित विषय पर मजबूत पकड़ होने के बावजूद उन्होंने आई.ए.एस मुख्य परीक्षा में फिलॉसॉफी और इतिहास विषय को चुना और प्रारंभ से उनका अध्ययन किया। अपने विषय चयन के बारे में गोविंद कहते हैं कि “इस दुनिया में कोई भी विषय कठिन नहीं है। बस आपके अंदर यह विश्वास होना चाहिए कि आप उस विषय को पूरा पढ़ने का इरादा रखते हो।

अंग्रेजी विषय का अधिक ज्ञान ना होने पर गोविंद का मानना है कि “भाषा की कोई परेशानी नहीं है बस आवश्यकता है तो स्वयं पर विश्वास की, मेरी हिंदी पढ़ने और हिंदी में विचार व्यक्त करने की क्षमता ने मुझे सफल बनाया। अगर आपको अपने विचार व्यक्त करने के माध्यम पर विश्वास है तो कोई भी आपको सफल होने से नहीं रोक सकता। कोई भी भाषा निम्न या उच्च नहीं होती। ये महज समाज के द्वारा बनाया गया एक बेबुनियाद आधार है। मैं पहले केवल हिंदी जानता था लेकिन आई.ए.एस प्रशिक्षण में मुझे अँग्रेजी पर अपनी पकड़ मजबूत करने का अवसर मिला। हमारी दुनिया बहुत सीधी है लेकिन समाज की सोच उसे घुमावदार बना देती है और निम्न और उच्च में विभाजित कर देती है।“
गोविंद की यह सफलता हमे संदेश देती है कि कितने ही अभाव क्यों ना हो परिस्थितियाँ कितनी ही विपरीत क्यों ना हो, यदि दृढ़ संकल्प और कड़ी मेहनत को साथी मानकर अपने लक्ष्य प्राप्ति में लग जाए तो सफलता आपके कदमों में होगी।अपने संघर्ष के दिनों के बारे में गोविंद कहते हैं कि “अगर वो बुरे दिन नहीं होते तो वह सफलता और जिंदगी का मतलब कभी नहीं समझ पाते।“
आज गोविंद को आई.ए.एस बने काफी समय हो गया है। लेकिन उनके संघर्ष की कहानी हमेशा हमें प्रेरित करती रहेगी।
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