₹30 दिन की कमाई, कर्मचारी से उसी कंपनी में डायरेक्टर और फिर कॉमेडी के सुपरस्टार बनने तक का सफ़र

कल्पना कीजिये फिल्म के एक हीरो की जिंदगी एक दिन में ही त्रासदी में तब्दील हो जाती है, उसकी प्राथमिकताएं अचानक नई परिस्थितियों के मुताबिक बदल जाती है, वह अपने जीवन में बुनियादी ज़रूरतों को लेकर भी संघर्ष करने लगता है और ज़िंदा रहने के लिए श्रम करने पर मज़बूर हो जाता है। और फिर वह छोटे-छोटे डग भरते हुए कुछ पैसे कमाने लगता है और ज़िन्दगी के द्वारा पेश की गयी हर चुनौती का सामना करते हुए कभी भी हार नहीं मानता।

रात दिन लगातार काम करने के बाद वह जीवन के ऐसे मुक़ाम पर पहुंच जाता है जहाँ उसे वो हर चीज़ हासिल हो जाती है जिसकी उसने कभी ख़्वाहिश की थी। हालांकि उसे जीवन के इम्तिहानों से अभी भी निजात नहीं मिलती। और उसके बाद एक वह दिन आता है जब वह यह सब कुछ छोड़ देता है और अपने जुनून को समर्पित हो जाने का और दुनिया में अपना निशान छोड़ जाने का फैसला ले लेता है। आज उस हीरो ने अनसोची ऊँचाइयाँ छू ली है, चेहरे पर संतोष की एक निर्मल मुस्कान लिए। 

वह हीरो हैं जीवेषु अहलुवालिया, विश्व भर के चहेते, जिनके सहज और अनोखे जोक्स की आज पूरी दुनिया दीवानी है। उन्होंने विभिन्न शैलियों में लगभग 1500 शोज किये हैं। जब से उन्होंने नौकरी छोड़कर हास्य को अपनाया है, उन्होंने देश क्या पूरी दुनिया की ही सैर कर डाली है। जीवेषु रियलिटी शो, विभिन्न टीवी कमर्शियल्स और बॉलीवुड फिल्म ‘तमाशा’ का भी हिस्सा रह चुके हैं।

इस 40 वर्षीय पंजाबी, ‘माँ का लाडला’ ने अपनी जीवन यात्रा को केनफ़ोलिओज़ संग मस्ती के साथ साझा किया।

“मैं एक सामान्य घर में पैदा हुआ। जीवन ने तब करवट बदली जब मैं सिर्फ चार साल का था और मेरे पिता का देहांत हो गया। मेरे जीवन का कठिन समय अब शुरू हो चुका था। मेरे पास लंच बॉक्स, नया स्कूल बैग और पुस्तकें नहीं होती थी क्योंकि हमारे पास उतने पैसे नहीं होते थे। मेरी सारी चीजें उधार की होती थीं। मेरे नोटबुक्स पुराने न्यूज़ पेपर से कवर किये जाते थे। मैंने सरकारी स्कूल में पढ़ाई की। हमारे पास आधारभूत चीजों के लिए भी पैसे नहीं होते थे।

हमारे पास एक टीवी तक नहीं थी। हम चटाई पर सोते थे क्योंकि हमारे पास पलंग और गद्दे नहीं होते थे। ऐसी परिस्थितियों में हम बड़े हुए। दसवीं कक्षा में पहुंचने के बाद मैंने महसूस किया कि मेरे पास सिर्फ एक ही विकल्प है और वह है पैसे कमाना। इसलिए मैंने कॉमिक लाइब्रेरी शुरू किया क्योंकि मुझे हिंदी कॉमिक्स बहुत अच्छी लगती थी। मैं 50 पैसे या एक रुपये में किताबें किराये पर देता था। मैं अपने छोटे से गेराज में एक चादर डालकर उसमें कॉमिक्स रखता था और बैग में हर तरह की लुभाने वाली चीजें ग्राहकों के लिए रखता था। मेरे लिए पैसे कमाना ही एक मात्र उद्देश्य था।

उसके बाद मैंने बहुत सी छोटी छोटी नौकरियों में अपना हाथ आजमाया। मैं घर-घर जाकर बिस्किट, जूस, घड़ियाँ और अगरबत्ती बेचा करता था। मैं दिन में 30 रुपये तक कमा लेता था और उस पैसे से अपने लिए घड़ियाँ, सनग्लासेस, स्लिपर्स और वह तमाम चीजें जो सोलह साल के लड़के पसंद करते हैं, खरीद लेता था।

कुछ समय बाद पीवीआर में मेरी पहली नौकरी लगी। यह भारत का पहला मल्टीप्लेक्स था। मैंने वहां एक टॉर्च मैन की नौकरी की। एक साल तक मैंने वहां काम किया और बाद में मुझे नौकरी से निकाल दिया गया। मैं जल्द से जल्द पैसा कमाना चाहता था और इसके लिए मैंने ब्लैक में टिकट्स बेचने शुरू कर दिए। एक दिन मैं पकड़ा गया और पुलिस वालों ने मेरी जमकर धुनाई की। (उस समय बच्चों को सुधारने का केवल यही एक मात्र तरीका होता था )

अब मैं कॉलेज जाना चाहता था, गर्लफ्रेंड बनाना चाहता था और सभी के सपनों के साथ जीवन जीना चाहता था। परन्तु मैंने यह महसूस किया कि ज़िंदा रहना ही मेरी पहली प्राथमिकता बन गयी थी और उसके लिए जरूरी था पैसा। मैंने बुझे मन से पिज़्ज़ा हट में एक डिलीवरी बॉय और वेटर की नौकरी की। तीन साल तक काम करने के बाद मैंने यह नौकरी छोड़ दी और नए खुले एक रेस्टोरेंट में ज्वाइन कर लिया। मेरा कॉलेज और मेरा काम साथ ही साथ चल रहे थे। इसकी वजह से कॉलेज में मैंने थर्ड डिवीज़न स्कोर किया। जाहिर सी बात है मुझे एमबीए के लिए कही भी एडमिशन नहीं मिला।

एक दिन मेरे एक दोस्त ने मुझे GE के शुरू होने की बात बताई और मैं वहां नौकरी के लिए पहुंच गया और यहीं से मेरी कॉल-सेंटर की यात्रा की शुरूआत हुई। 14 साल यहाँ काम करने के बाद मैं इस कंपनी का डायरेक्टर बन गया। 29 वर्ष की उम्र में मेरी शादी हुई और एक साल बाद ही मेरा तलाक हो गया। तब मुझे महसूस हुआ कि मैंने पेशे में तो सफलता हासिल की पर निजी जीवन में असफल रहा।

मैंने ऑफिस में 700 लोगों को एक साथ संभाल लिया परन्तु अपने जीवन में आई एक महिला को नहीं संभाल पाया।

इस चीज के अलावा मेरा जीवन बड़े अच्छे से गुजरा। चारों तरफ आराम ही आराम था। महीने के अंत में अच्छा खासा चेक मेरे हाथ में होता था। मैं बिज़नेस क्लास में सफर करता था और महंगे से महंगे होटल में ठहरता था। मैंने लंबे समय तक फ्रेंच कट दाढ़ी रखी थी। एक सुबह जब मैं अपने आपको आईने में देख रहा था तब मैंने देखा मेरी फ्रेंच कट पूरी की पूरी सफ़ेद हो गई है। उस पल मुझे ज़ोर का एक झटका लगा और मैं इस जीवन से बाहर आने के लिए एक अजीब सी तीव्र बेचैनी महसूस करने लगा। मुझे उस आवाज़ की प्रतीक्षा थी जो मुझे उस ओर जाने का इशारा करता जो मेरी नियति थी। शुक्र है की उस आवाज़ ने ही मुझे ढूंढ लिया।

मुझे “open mic” की तरफ से आमंत्रण मिला जहाँ मुझे दो मिनट बोलने का मौका मिला और मैंने उसके बाद बहुत ही अच्छा महसूस हुआ। और आज मैंने एक बेहतर जीवन का परिचय पाया। आठ साल बाद मैंने अपनी नौकरी और अपना सब कुछ छोड़ दिया और स्टैंड-अप कॉमेडियन बनने निकल पड़ा। 

काफी चुनौतियाँ सामने आईं। किसी मोर्चे को छोड़ देना सबसे आसान होता है पर उस पर डटे रहना सबसे मुश्किल। मैंने यह महसूस किया कि हमें दूसरों से और उनकी उपलब्धियों से कभी अपनी तुलना नहीं करनी चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण है यह जानना कि आपको करना क्या है। शुरू के कुछ महीने मैंने पैसे नहीं कमाए परन्तु जीना सीख लिया। पहली नौकरी में मैंने बहुत यात्राएं की और वापस आकर मुझे एक दिन आराम की ज़रुरत होती थी, यात्राएं तो अब भी करनी होती हैं परन्तु आराम की तालाब अब कभी महसूस ही नहीं होती। यही मेरे जीवन का अहम् बदलाव भी है और तरक़्क़ी भी।

बहुत से लोग हैं जो मुझे एक मोटे, तलाक़शुदा, नाटे और एक साधारण सा दिखने वाले के रूप में जज करते हैं। लोगों का अपना निर्णय है। पर मैं सोचता हूँ कि ये सारी चीजें आपको और बेहतर करने के लिए प्रेरित करती हैं। अगर मैं वैगन आर से उतरता हूँ तो लोगों की अलग सोच होगी और अगर मैं पॉर्श या मर्सिडीस से उतरता हूँ तो लोग मुझे खाते-पीते घर का क्यूट लड़का कहेंगे।

मैं सभी लोगों को यह कहना चाहता हूँ कि जीवन बहुत ही छोटा है। मुस्कुराते रहिये क्योंकि दुःखी होने के हज़ार कारण हमेशा आपके पास रहते हैं, मगर खुश रहने के कारण ढूंढिए और उसे सहेज-संभाल कर रखिये। हमेशा छोटी-छोटी चीजों को देखे क्योंकि यह जीवन में बार-बार होती है। अपने आप पर एक एहसान करिये -केवल अस्तित्व में रहना छोड़िये और जीना शुरू करिये।

यह आलेख हमारी सीरीज “बशर की बिसात” का हिस्सा है जो मूल रूप से जीवेषु अहलुवालिया द्वारा अंग्रेजी में लिखे आलेख का अनुवादित संस्करण है। अनुवाद का श्रेय अनुभा तिवारी को जाता है।

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