10,000 रुपये से शुरू होकर 350 करोड़ का टर्नओवर, आज 50 देशों में फैल चुका है कामयाबी का साम्राज्य

छह दशक पहले एक व्यक्ति खाली जेब कोलकाता आया था और आज वही शख्स भारत के सफल पूंजीपतियों की कतार में खड़ा है। इस शख्स ने एक ऐसा करोबार स्थापित किया,जो आज अपने सेक्टर की सबसे बड़ी भारतीय कंपनी बन चुकी है और उसका टर्नओवर लगभग 350 करोड़ है। 

हम बात कर रहे हैं 78 साल के सूरजमल जालान की, जिन्होंने भारत की सबसे बड़ी कलम निर्माता कंपनी लिंक के कर्ता-धर्ता हैं। उन्होंने अपने कठिन संकल्प से आज इस कंपनी को एक ऊंचाई पर ला खड़ा किया है। लिंक साल 2016 में अपनी 40वीं वर्षगांठ भी बड़ी धूमधाम से मना चुका है और यह जानकर आपको हैरानी होगी कि लिंक सालाना एक करोड़ से अधिक कलमों का लगभग 50 देशों में निर्यात करती है।

राजस्थान के शिखर जिले के लछमन गढ़ी में एक बहुत ही साधारण परिवार में जन्में सूरजमल के पिता सेवानिवृत हो चुके थे और उनके दो बड़े भाई ही घर चलाया करते थे। छह भाई-बहनों में पांचवे नंबर पर सूरजमल थे और बहुत ही लाड़-प्यार से पले-बढ़े। अपने हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी करके वे गांव से 18 किलोमीटर दूर कॉलेज की पढ़ाई के लिए गए।1957 में 19 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने अपने भाग्य का फैसला खुद ही लिखने की ठान ली थी। उनके परिवार वालों ने उन्हें एक ही शर्त पर बाहर जाने की इजाज़त दी कि उन्हें गांव छोड़ने के पहले शादी करनी होगी। यह उन्हें मंज़ूर नहीं था और वे बिना पैसों के ही घर से रवाना हो गए।

कोलकता के हैरिसन रोड के एक कारपेट शोरूम में उन्हें पहला जॉब मिला। उनके एक दोस्त की ट्रांसपोर्ट कंपनी थी, सूरज वहीं पर रहते और फुटपाथ पर नहाते और रोड साइड खाना खाते थे। पैसे कम होने की वजह से वे कई-कई किलोमीटर पैदल चलते थे। वह समय उनके लिए बेहद ही कठिनाइयों से भरा था और घर का स्नेह-भरा वातावरण उन्हें बहुत याद आता था। साल भर काम करने के बाद उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी और कंघा बनाने की फैक्ट्री में काम करने लगे। यहाँ उन्होंने लगभग दो साल काम किया। इसके बाद उन्होंने सिलीगुड़ी में एक चावल मिल में और चाय के बागानों में असिस्टेंट मैनेजर के पद पर भी काम किया जहाँ उनकी महीने की तनख्वाह सिर्फ 500 रुपये होती थी। माता-पिता की आयु अधिक होने की वजह से उनकी देखभाल के लिए उन्हें वापस गांव लौटना पड़ा।

गांव आकर अपनी कमाई हुई आमदनी से वे कलम खरीदकर घर-घर जाकर बेचने लगे। तब उन्हें महसूस हुआ कि  हमारे देश में अच्छी गुणवत्ता के पेन ही नहीं बनते और यहीं से उनके भाग्य ने करवट बदली।

दो साल बाद फिर उन्होंने अपना गांव छोड़कर वापस कोलकता आने का निश्चय किया क्योंकि उनके बड़े सपने इस छोटे से गांव में पूरे नहीं हो सकते थे। उन्होंने कोलकत्ता की सबसे बड़ी स्टेशनरी मार्केट बागरी बाजार में कलम की एक रिटेल काउंटर खोल ली। जो बाद में होल-सेल में तब्दील हो गयी। पर उनके मन में एक हसरत पलती रही कि काश वे पेन बनाने वाली एक फैक्ट्री खोल पाते।

इसमें उनके ससुराल वालों ने उनकी बहुत मदद की। उन लोगों ने कोलकत्ता के मालपारा में 10 बाइ 10 फीट साइज का एक कमरा इन्हें दे दिया जहाँ उन्होंने अपनी फैक्ट्री की शुरुआत की। 10,000 रुपये लगाकर उन्होंने बॉल पेन के प्लास्टिक पार्ट्स बनाने की शुरुआत की। और उनका यह उत्पाद लोगों को पसंद आने लगा पर उन्हें तो अपने सपनों की शुरुआत अपने खुद के ब्रांड से करनी थी।

साल 1976 में उन्होंने अपने सपने को साकार करने के लिए लिंक पेन और प्लास्टिक की शुरुआत की। किराये के 700 स्क्वायर फ़ीट के ऑफिस में काम शुरू किया। उनके कंपनी में सिर्फ पांच लोग काम करने वाले थे और ऑफिस का किराया 700 रूपये था। उन्होंने ब्रांड का नाम लिंक अपने एक दोस्त की सलाह पर रखा।लिंक का मतलब होता है जोड़ना। शुरू में वे खुद ही होल-सेलर के पास जाते, लोगों के पास जाते पर धीरे-धीरे उनका बिज़नेस परवान चढता गया।उनके 17 साल के बेटे दीपक जालान ने 1980 में लिंक पेन में एक सेल्स ट्रेनी के रूप में काम शुरू किया और अब वे लिंक पेन के प्रबंध निदेशक हैं।

1992 में लिंक मित्सुबिशी जापान के साथ मिलकर यूनी-बॉल पेन्स के एक्सक्लूसिव वितरक बन गए। और उसी साल इन्होंने 12 लाख कलम साउथ कोरिया को एक्सपोर्ट किया। 2005 में कंपनी ने लिंक ग्ल्य्सियर की शुरुआत की।

आज भारत में लिंक के कई स्टोर हैं जो जेलपेन्स और फाउंटेन पेन्स के साथ-साथ अन्य स्टेशनरी-आइटम, मार्कर्स, मारकर-इरेसेर्स, नोटबुक और फाइल फोल्डर आदि बनाते हैं। 2008 में शाहरुख खान इसके ब्रांड एम्बेसडर बने। दीपक के बेटे रोहित भी अपने पिता के साथ मिलकर अगले चार सालों में कंपनी का टर्नओवर दोगुना करने में लगे हुए हैं। सूरजमल जालान ने जो कहानी शुरू की थी, उनकी नई पीढ़ियां उसे आगे बढ़ाने में लगी हुई है।

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