5000 रुपये से शुरुआत कर 1000 करोड़ की कंपनी बनाने वाले चंडीगढ़ के एक लड़के की कहानी

कभी एक पेट खाने के लिए मोमबत्ती और कपड़े बेचने को मजबूर इस शख्स ने विदेशी छात्रों की भर्ती के लिए एक सॉफ्टवेयर आउटसोर्सिंग कंपनी का निर्माण कर अपनी उद्यमशीलता का जो परिचय दिया, वह वास्तव में प्रेरणादायक है। बचपन से ही एक उद्यमी बनने का सपना पाले उन्होंने महज़ 5,000 रुपये से शुरुआत कर आज भारत, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और ब्रिटेन में ख़ुद के कार्यालयों के साथ 1000 करोड़ के साम्राज्य के मालिक हैं।

चंडीगढ़ के एक गरीब परिवार में पैदा लिए नरेश गुलाटी का बचपन बेहद अभावों में बीता। घर की आर्थिक हालात इतनी बुरी थी कि दो वक़्त के भोजन के लिए जूझना पड़ता था। अपने परिवार की सहायता के लिए चंडीगढ़ के फुटपाथ पर महज़ 15 साल की उम्र में उन्होंने मोमबत्तियों की बिक्री शुरू कर दिया। हालांकि साथ ही साथ उन्होंने अपनी पढाई भी जारी रखी। कुछ दिन मोमबत्ती बेचने का धंधा करने के बाद उन्होंने घर-घर जाकर कपड़े बेचने का धंधा शुरू कर दिया। यह वक़्त उनके लिए बेहद संघर्षपूर्ण था लेकिन इसने उनके अंदर कठिनाईयों से डटकर मुकाबला करने की शक्ति प्रदान की। कई वर्षों तक इसी तरह धंधा और साथ में पढ़ाई चलती रही।

काम करते-करते न सिर्फ उन्होंने अपने परिवार को आर्थिक रूप से सहायता की बल्कि ख़ुद की भी सेविंग्स पर जोर दिया। उनकी उच्च महत्वाकांक्षा ने उन्हें डाटा प्रोसेसिंग में डिप्लोमा करने के लिए प्रोत्साहित किया और फिर उन्होंने डिप्लोमा कर एक कंप्यूटर शिक्षक के रूप में करियर की नई शुरुआत की। हालांकि आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए उन्होंने शिक्षक के रूप में काम करना शुरू किया था। कुछ पैसे जमा करने के बाद उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए ऑस्ट्रेलिया का रुख करने का फैसला लिया।

ऑस्ट्रेलिया में पढ़ाई के लिए उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं थे। ख़ुद की सेविंग्स और एक साहूकार से उधार लेकर उन्होंने ऑस्ट्रेलिया के रॉयल मेलबोर्न इंस्टिट्यूट में दाखिला लिया और साल 1995 में सफलतापूर्वक सूचना प्रणालियों में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की।

अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए गुलाटी बताते हैं कि “मुझे कई बार पैसे खत्म होने की वजह से पार्क में मौजूद बेंच पर सो कर रात बितानी पड़ती थी” उन्होंने कहा कि इस कठिन दौर के समय कई भारतीय छात्रों ने उनकी उद्यमशीलता की भावना को समझते हुए उन्हें मदद की और एक उज्जवल भविष्य का एहसास कराया।

इन तमाम कठिनाईयों से जूझते हुए उन्होंने कभी हार नहीं मानी। काफी जद्दोजहद के बाद भी उन्हें कोई ढंग की नौकरी नहीं मिल पा रही थी। इसी पीड़ा ने उन्हें छात्र भर्ती व्यापार से संबंधित एक कारोबार शुरू करने के लिए प्रेरित किया। वर्ष 1996 में उन्होंने भारत लौट कर करीबन एक लाख रुपये की पूंजी के साथ कंसल्टेंट्स के रूप में अपना कारोबार शुरू कर दिया।

धीरे-धीरे उन्होंने कई बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के साथ समझौता कर छात्रों की भर्ती के लिए एक सॉफ्टवेयर आउटसोर्सिंग कंपनी ‘ओशनिक’ का निर्माण किया। यह कंपनी छात्रों को वास्तविक जानकारी के साथ-साथ मार्गदर्शन प्रदान करती है और यह सब बिल्कुल निःशुल्क। इतना ही नहीं कंपनी उन्हें आवेदन प्रक्रिया में भी मदद करती और साथ में वीजा के लिए आवेदन करने और उनके विकल्प के संस्थान में प्रवेश प्राप्त करने तक मदद जारी रखती।

आज 70 फीसदी से ज्यादा ऑस्ट्रलियन यूनिवर्सिटी और 65 फीसदी न्यूजीलैंड की यूनिवर्सिटी इनके क्लाइंट हैं। भारत, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और ब्रिटेन जैसे देशों में कार्यालयों के साथ कंपनी का टर्न ओवर 1000 करोड़ के पार है।

जो लड़का कभी दो जून की रोटी के लिए सड़क किनारे मोमबत्ती बेचने को मजबूर था आज इतने बड़े कंपनी का मालिक है। सफलता का आकलन आप ख़ुद कर सकते हैं।

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