5000 रुपये से हुई थी शुरुआत, आज पूरी दुनिया में फैला है 65,000 करोड़ का साम्राज्य

यह सच है कि परिस्थितियां ही लोगों को कुछ नया करने की प्रेरणा देती है। शून्य से शिखर तक पहुँचने वाले ज्यादातर लोगों की सफलता पर गौर करें तो हमें यह देखने को मिलता है कि उनकी निजी जिंदगी में आई बाधाओं ने उन्हें कुछ कर गुजरने की प्रेरणा दी। लेकिन इन्हीं सफल लोगों की सूची में कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने समाज में गरीब लोगों के दर्द को महसूस करते हुए कुछ नया करने की ठानी और करोड़ों लोगों की समस्या को हल करते हुए देश के शीर्ष उद्योगपति की कतार में शामिल हो गये।

डॉ देश बंधु गुप्ता इन्हीं लोगों में एक हैं जिन्होंने देश की एक जानी-मानी फार्मा कंपनी “लुपिन लिमिटेड” की आधारशिला रखी। साल 1968 में 5000 रुपये की रकम से जब उन्होंने शुरुआत की थी तो उन्हें भी मालुम नहीं था कि आने वाले वक़्त में उनकी कंपनी दुनिया के शीर्ष फार्मा कंपनियों में एक होगी।

राजस्थान के राजगढ़ में एक मध्यम-वर्गीय परिवार में जन्में और पले-बढ़े गुप्ता बताते हैं कि मेरे पिता हमेशा यही चाहते थे कि मैं क्लास में प्रथम स्थान प्राप्त करूँ, दूसरा स्थान प्राप्त करने का मेरे सामने कोई आप्शन नहीं होता था। पिता के दबाव में ही सही लेकिन शुरूआती पढ़ाई से इन्हें बाद में काफी फायदा मिला। महज 20 वर्ष की उम्र में इन्होंने मास्टर डिग्री के लिए पढ़ाई शुरू कर दी थी। इस दौरान कॉलेज में दाखिला लेने के लिए इन्हें विशेष अनुमति भी लेनी पड़ी थी।

हालांकि इनके पिता इन्हें कृषि से संबंधित पढ़ाई करने के लिए हमेशा प्रोत्साहित करते थे लेकिन पठन-पाठन की रूचि को ध्यान में रखते हुए गुप्ता ने रसायन विज्ञान में डॉक्टरेट किया। पढ़ाई पूरी करने के बाद इन्होंने बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड साइंस, पिलानी में एक सहयोगी प्रोफेसर के रूप में अपना कैरियर शुरू किया। भारत उस दौर में एक युवा राष्ट्र था और उसके निर्माण में युवाओं की आवश्यकता थी। सेवा भाव से गुप्ता ने भारतीय सेना के रासायनिक इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट में एक निवासी शिक्षक के रूप में आवेदन किया लेकिन दुर्भाग्यवश इन्हें रिजेक्ट कर दिया गया।

इसके बाद गुप्ता ने मुंबई का रुख किया और “मे एंड बेकर” नाम की एक ब्रिटिश दवा कंपनी में काम करने शुरू कर दिए। इस दौरान गुप्ता ने महसूस किया कि समाज के एक बड़े हिस्से के लिए उनकी आर्थिक क्षमता के अनुसार बाज़ार में दवा की आवश्यकता थी। गरीब लोग बाज़ार में मौजूद महंगी दवाईयों को खरीदने में असमर्थ थे। अंत में उन्होंने एक दवा कंपनी खोलने का निश्चय किया।

साल 1968 में इन्होंने 5 हज़ार रुपये की खुद की सेविंग्स से लुपिन फार्मा की आधारशिला रखी। गुप्ता बताते हैं कि यह सफ़र रोमांचक और चुनौतीपूर्ण दोनों रहा। जब मैंने शुरू किया था तो हमारे साथ एक कर्मचारी सह चपरासी और एक अंशकालिक टाइपिस्ट ही थे लेकिन आज यह 65 हज़ार करोड़ के वैल्यूएशन के साथ एक अग्रणी दवा कंपनी का रूप ले चुकी है जो 100 से अधिक देशों में अपनी पैठ जमा चुका है।

शुरुआती साल संघर्षों से भरा था क्योंकि उन दिनों नए व्यापार में निवेश करना मुश्किल होता था और उद्यम पूंजीगत धन तथा निजी इक्विटी जैसी कांसेप्ट तो एकदम अनसुनी थी। इस दौरान उन्होंने कई बैंकरों से मुलाकात की और उनके व्यापार विचारों को जाना तथा परखा। गुप्ता को कुछ अच्छे लोगों का साथ मिला और फिर इन्होंने एक छोटा सा संयंत्र स्थापित कर लुपिन के कामकाज को आगे बढ़ाया। गुप्ता ने गंभीर बीमारियों को मात देने वाली उन दवाइयां पर काम शुरू किया जो उच्चतम सामाजिक प्राथमिकता के थे तथा जिसपर अन्य कंपनियां ज्यादा ध्यान नहीं दे रही थी।

डॉ गुप्ता बताते हैं कि तमाम बड़ी फार्मा कंपनियां टीबी ड्रग्स में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रही थी क्योंकि इसमें काफी कम प्रॉफिट होते थे। लेकिन हमनें इन्ही क्षेत्रों पर विशेष जोर दिया।

शुरुआत में, लुपिन के अधिकांश प्रतिस्पर्धी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां थी जो अत्यधिक कीमतों पर दवाओं की आपूर्ति करती। आम आदमी इन दवाओं का वहन नहीं कर सकता था। और उस वक़्त एक भी भारतीय फार्मास्युटिकल कंपनियां बड़े पैमाने पर काम नहीं कर रही थीं। इन तमाम चीजों को मद्येनजर रखते हुए लुपिन ने उन उत्पादों को बनाने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाया, जिसकी सख्त आवश्यकता थी तथा वह लागत प्रभावी और उच्च गुणवत्ता वाला हो। कम लागत में जरुरी दवाइयां घर-घर तक पहुंचाते हुए लुपिन कुछ ही वर्षों में देश की अग्रणी दवा कंपनी बन गया। साल 2007 में जापानी बाज़ार में अपनी पैठ जमाते हुए लुपिन ने क्योवा नामक एक बड़ी जापानी फार्मा कंपनी का अधिग्रहण भी किया।

सामाजिक कल्याण के दृष्टिकोण से गुप्ता ने लुपिन मानव कल्याण और अनुसंधान फाउंडेशन की आधारशिला भी रखी। यह ग्रामीण भारत में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों के उत्थान के लिए एक स्थायी ग्रामीण विकास मॉडल बनाने के उद्देश्य से स्थापित किया गया था। यह दक्षिणपूर्व एशिया में किसी कॉरपोरेट द्वारा वित्त पोषित सबसे बड़े गैर-सरकारी संगठनों में से एक है।

डॉ गुप्ता की गिनती आज देश के सबसे प्रभावशाली उद्यमी के रूप में होती है। सीमित संसाधन में एक छोटी सी शुरुआत से दुनिया के जाने-माने फार्मा टाइकून बनने तक का सफ़र तय करने वाले डॉ गुप्ता की सफलता नई पीढ़ी के लोगों के लिए बेहद प्रेरणादायक है।

कहानी पर आप अपनी प्रतिक्रिया नीचे कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं तथा इसे शेयर कर अन्य लोगों तक पहुंचायें

Had To Sell Wife’s Jewellery For Rs 8,000, Then Created A Multi-Million Firm From Scratch

कभी पैदल गली-गली घूम बेचती थी कोयला, आज चलती है ऑडी, मर्सीडीज जैसी कारों के काफिले में